आज का सामयिक गीत
सत्येन्द्र तिवारी
नजर जिधर भी
उठी हमारी
बहुत अनैतिक जशन दिखे है
डरी डरी सी
आंखों में कुछ
अन बुझे से प्रश्न लिखे है।
नासूर बन गया एक विभाजन
कितने और विभाजित होंगे
जाती धर्म की परिभाषा में
दूषित हित अनुवादित होंगे
नहीं फिकर है
जिन्हे कौम की
लगते काले मन कुछ के है।
जिसको देखो लगे बिछाने
शतरंजी छालों की गोटी
इन केमन की चाहत में है
कुर्सी मिले बड़ी याछोटी
जहर बांटते
घूम रहे है
नाफरत की भाषा सीखे है।
नहीं हितैषी लगें वतन के
निज हित की आपा धापी में
लगे हुए है सारे परचम
मन से जोड़ गुणा बाकी में
इन के स्वार्थ
अहंकार में ही
सेवक के प्रयास दरके हैं ।
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