कृष्ण कन्हाई
ठीक उसी क्षण वंशी की धुन
हवा में तिरती आयी।
लो,लेते ही नाम आ गए
सचमुच कृष्ण कन्हाई।
कृष्णा के कहते-कहते
आ गए वहाँ नटनागर।
धर्मराज को लगा,उमड़कर
आया है सुखसागर।
अभी-अभी ही तेरी चर्चा
करती थी मैं भैया!
अभी-अभी ही प्रकट हो गए,
मेरे कृष्ण कन्हैया!
सचमुच तुम अंतर्यामी हो,
फिर से सिद्ध किया है।
एकबार फिर से मेरा मन
तुमने मोह लिया है।
धर्मराज की चिन्ता को अब
तुम ही दूर भगाओ।
क्षत्रियत्व इनका जो सोया,
उसको जरा जगाओ।
मैं जाती कुटिया के अन्दर,
काम पड़े हैं मेरे।
ना जाने कैसी-कैसी चिंता
है इनको घेरे।
धर्मराज ने हो निरीह तब
मुरलीधर को देखा।
खिंच गयी कृष्ण के अधरों पर
तत्काल हास्य की रेखा।
धर्मराज,क्या कृष्णा हरदम
लड़ती ही रहती है!
तीक्ष्ण शूल की तरह हृदय में
गड़ती ही रहती है!
भला आप क्यों उसकी
उल्टी-सीधी बातें सहते!
सुनते हैं चुपचाप सदा,
क्यों उसे नहीं कुछ कहते!
कैसे मैं कुछ कहूँ उसे,
जबकि हूँ मैं ही दोषी।
मुझ जैसा कैसे सब कोई
हो सकता सन्तोषी?
और करे सन्तोष भी कैसे,
वह है आग की ज्वाला।
बड़े यत्न से पांचाली को
उसके पिता ने पाला।
-मिथिलेश कुमार मिश्र 'दर्द'