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जाग चुकी हैं कलमें

जाग चुकी हैं कलमें

अरुण दिव्यांश
अब जाग चुकीं हैं ये कलमें ,
कलमें अब सो नहीं सकतीं ।
उजागर करेंगी सदा बुराईयाॅं ,
स्व अस्तित्व खो नहीं सकतीं ।।
कलमें गईं हमारी अब जाग ,
फन उठाए सतर्क हुआ नाग ।
सावधान अधर्मी आतंकियों ,
स्याही रूप निकल रहे आग ।।
नहीं समझे तुम कोयल कूक ,
काॅंव काॅंव करते बन काक ।
लगा रहे हो विद्रोही आग तू ,
अब जलकर होगे तुम खाक ।।
उजागर होंगे सारे ही पाखंड ,
ताड़ ताड़ होंगी अब बुराईयाॅं ।
नेक मानवता जीतेगा जग में ,
ऊॅंच नीच की मिटेंगी खाईयाॅं ।।
नहीं रहेंगी यहाॅं जाति पाॅंति ,
मानव मानव सब एक समान ।
समान सम्मान सबके दिल में ,
सबके प्यारे हों एक अरमान ।।


पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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