जलने लगा अलाव
अरुण दिव्यांशठंढी इतनी बढ़ गई कि ,
ठिठुर रहे हैं शहर गाॅंव ।
जा रहे आने जानेवाले ,
जलने लगा है अलाव ।।
शिशु बूढ़े छिपे पड़े हैं ,
तन बदन ठंढे हो रहे हैं ।
नहीं संभलते जो इसमें ,
आपा निज खो रहे हैं ।।
छुपकर रहते उर रोगी ,
ठंढ में उनपे खतरा बढ़ा ।
नहीं संभलते ऐसे रोगी ,
परिवार में मायूसी चढ़ा ।।
अजीब है मानव जीवन ,
ठंढ पड़े तब भी परेशान ।
कम ठंढ में जीवन राहत ,
तो फसल बिन परेशान ।।
यही स्थिति बरसात गर्मी ,
सामान्य ऋतु देती आराम ।
किसानों की अंदर बेचैनी ,
फसल बिन जीवन हराम ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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