मानव शरीर: देवताओं का देवालय और दिव्य रहस्य
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति परंपरा में मानव शरीर को केवल हाड़-मांस का पुतला नहीं, बल्कि एक पवित्र मंदिर (देवालय) माना गया है। यह वह निवास स्थान है, जिसकी रचना स्वयं ईश्वर ने अपनी माया से चौरासी लाख योनियों के बाद विशेष रूप से की। ईश्वर इस रचना से अत्यंत प्रसन्न हुए क्योंकि मनुष्य ऐसी बुद्धि से युक्त है जिससे वह परम सत्ता (ईश्वर) के साथ साक्षात्कार कर सकता है। ईश्वर ने मानव शरीर का निर्माण पंचभूतों में आकाश, वायु, अग्नि, भूमि और जल – से किया। देवताओं के रहने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज के दौरान, जब मनुष्य शरीर प्रकट हुआ, तो सभी देवता अति प्रसन्न हुए। उपनिषद् के अनुसार, शरीर के सभी बाहरी द्वार बंद होने पर, जब भक्ति का भीतरी पट खुलता है, तभी ईश्वर ज्योति रूप में प्रकट होते हैं और मनुष्य को दर्शन होते हैं। देवताओं ने ईश्वर के आदेश पर अपने-अपने योग्य स्थानों में प्रवेश किया: सूर्य: नेत्रों में ज्योति (प्रकाश) बनकर। ,वायु: छाती और नासिका-छिद्रों में प्राण बनकर।
अग्नि: मुख में वाणी और उदर में जठराग्नि बनकर। दिशाएं: कानों में श्रोत्रेन्द्रिय (सुनना) बनकर। औषधियां और वनस्पति: त्वचा में लोम (रोम) बनकर।चन्द्रमा: मन होकर हृदय में।मृत्यु (यम): मलद्वार होकर नाभि में।
जल देवता: वीर्य होकर पुरुषेन्द्रिय में। इस प्रकार, तैंतीस देवता अंश रूप में आकर मानव शरीर में निवास करते हैं।
चौदह इन्द्रियों और उनके अधिष्ठाता देवता : संसार के सभी देवता मानव शरीर में अप्रकट रूप से स्थित हैं, किन्तु दस इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रियां) तथा चार अंतःकरण (बुद्धि, अहंकार, मन, और चित्त) के अधिष्ठाता देवता प्रकट रूप में निवास करते हैं। इनकी कुल संख्या चौदह (14) है: ज्ञानेन्द्रिय नेत्रेन्द्रिय (आँख) रूप का दर्शन भगवान सूर्य , घ्राणेन्द्रिय (नासिका) गन्ध का ज्ञान अश्विनीकुमार , श्रोत्रेन्द्रिय (कान) शब्द का सुनना दिक् देवता ( जिह्वा (रसना) रस (स्वाद) का ज्ञान वरुण देवता ,. त्वगिन्द्रिय (त्वचा) स्पर्श का अनुभव वायु देवता
कर्मेन्द्रिय में हस्तेन्द्रिय (हाथ) कर्म संपन्न करना इन्द्रदेव , चरणों चलने का कार्य उपेन्द्र (श्रीविष्णु/वामन)
वाणी शब्दों का उच्चारण सरस्वती9. उपस्थ (मेढ़ू) संतानोत्पत्ति (सृष्टि) प्रजापति, गुदा मल निस्तारण (शुद्धि) मित्र/मृत्यु देवता , अंतःकरण में बुद्धि सद्बुद्धि, सूक्ष्म ज्ञान ब्रह्मा , अहंकार 'मैं' का बोध रुद्र मन संकल्प-विकल्प चन्द्रमा , चित्त चैतन्य, चेतना, स्पन्दन प्रकृति-शक्ति/चिच्छक्तिचित्त का महत्व: जब चित्त के अधिष्ठाता देवता ने शरीर में प्रवेश किया, तभी विराट पुरुष उठकर खड़ा हो गया। चित्त ही शरीर में चेतना और सभी क्रियाओं का संचालन करता है।
अथर्ववेद में मानव शरीर को "अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या" (आठ चक्र और नौ द्वारों वाली देवताओं की पुरी) कहा गया है। विज्ञान के अनुसार, माता-पिता के संयोग से मनुष्य का जन्म होता है, लेकिन आध्यात्म के अनुसार इसमें 33 कोटि के देवी-देवताओं (जैसे सूर्य, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, चन्द्र आदि) का सहयोग होता है। ये देव अपने-अपने सूक्ष्म अंशों से माँ के गर्भ में बच्चे के जन्म, पालन-पोषण, और रक्षा में सहयोग करते हैं। अथर्ववेद का सार: सूर्य आँखें हैं, वायु प्राण हैं, अंतरिक्ष आत्मा है, और पृथ्वी शरीर है। ज्ञानी मनुष्य इसलिए मानव शरीर को ब्रह्म मानता है, क्योंकि सभी देवता इसमें वैसे ही निवास करते हैं जैसे गोशाला में गायें। चूँकि यह शरीर स्वयं भगवान द्वारा बनाया गया देवालय है, अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि वह इसे साफ-सुथरा रखे। इसके लिए निम्न कार्य आवश्यक हैं:।नकारात्मक विचारों और मनोविकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार) से दूर रहना।।योग साधना, व्यायाम व सूर्य नमस्कार से पसीना बहाकर शरीर की आंतरिक गंदगी दूर करना।अनुलोम-विलोम व सूक्ष्म क्रियाएं करके शुद्ध हवा का सेवन करना।शुद्ध सात्विक भोजन सही समय पर व सही मात्रा में करके पेट को साफ रखना। वेदों का संदेश हमें स्मरण कराता है: "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) और "तत्वमसि" (वह तू ही है)। सृष्टि का हर प्राणी परमात्मा का अंश है। इस दिव्य सत्य को जानकर, मनुष्य को दैत्यमानव बनने के बजाय महामानव बनने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि कर्म का सिद्धांत अटल है और हर प्राणी के कर्मों का लेखा रखा जा रहा है।
गर्भ में 33 देवताओं का संरक्षणमें शरीर केवल माता-पिता के संयोग का परिणाम नहीं है, बल्कि माँ के गर्भ में 33 देवताओं का सामूहिक सहयोग इसे जीवन देता है। ये देव अपने सूक्ष्म अंशों से गर्भ को स्थिर (ठोस) करते हैं और बच्चे का पालन-पोषण करते हैं। उदाहरणार्थ, वायु देव का गर्भ में न पहुँचना जीवन को असंभव बना देगा।अथर्ववेद का दिव्य कथन: "सूर्य मेरी आँखें हैं, वायु मेरे प्राण हैं, अन्तरिक्ष मेरी आत्मा है और पृथ्वी मेरा शरीर है।" यह कथन सिद्ध करता है कि हम ब्रह्मांड का ही सूक्ष्म अंश हैं, जिसमें दिव्यलोक (सूर्य), अंतरिक्ष लोक (वायु) और पृथ्वी लोक (पदार्थ) समाहित हैं।जन्म के समय कष्ट के कारण मनुष्य इन दिव्य रहस्यों को भूल जाता है, परन्तु वेद का मंत्र हमें स्मरण कराता है: "अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ब्रह्म हूँ) और "तत्वमसि" (वह तू ही है)।
चूँकि भगवान संसार में सभी क्रियाओं का संचालन करने वाले देवताओं के साथ इस शरीर में विराजमान हैं, अतः मनुष्य का परम कर्तव्य है कि वह इस देवालय को साफ-सुथरा रखे नकारात्मक मनोविकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या) से स्वयं को दूर रखें। ये विकार देवताओं के निवास स्थान को दूषित करते हैं।शारीरिक शुद्धि: योग साधना, व्यायाम और सूर्य नमस्कार से पसीना बहाकर आंतरिक गंदगी को दूर करना।प्राणों की शुद्धि: अनुलोम-विलोम जैसी सूक्ष्म क्रियाओं से शुद्ध हवा का सेवन करना।पाचन शुद्धि: शुद्ध सात्विक भोजन सही समय और मात्रा में करके पेट को निर्मल रखना।।सृष्टि का हर प्राणी परमात्मा का अंश है। यह शरीर वह विशेष मंदिर है जिसके बाहर के द्वार बंद हो जाने पर भक्ति का भीतरी पट खुलता है, और ईश्वर ज्योति रूप में प्रकट होते हैं। मानव महामानव और देवमानव बनने के बजाय यदि दैत्यमानव बनने की ओर बढ़ता है, तो उसे यह स्मरण रखना चाहिए कि सृष्टि के नियम अटल हैं। विधाता की अदालत में कर्म का लेखा-जोखा हो रहा है, और कर्म अपने कर्ता को ढूंढ ही निकालता है—सज़ा या इनाम मिलकर ही रहते हैं। यह दिव्य देह हमें परमात्मा ने भेंट की है। हमें इसे केवल भक्षण या भोग का साधन न मानकर, ईश्वर साक्षात्कार का सर्वोत्तम साधन मानना चाहिए।
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