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"भीतर की अनकही प्रतिध्वनि"

भीतर की अनकही प्रतिध्वनि

पंकज शर्मा
मैं अपनी ही दशा से
कुछ इस तरह किनारा किए हूँ
मानो भीतर उठती किसी अनाम तरंग को
देखना भी एक बोझ हो।
वास्तविकता की धुँध
कभी बाहर नहीं होती—
वह मन की ही सतह पर
धीरे-धीरे जमती है।


जानता हूँ
कि कुछ प्रश्न मेरे पास लौटकर
बार-बार खड़े होते हैं,
पर मैं उनकी आँखों में झाँकने से
कतराता हूँ—
अक्सर सत्य
इतना निकट होता है
कि उसकी तीक्ष्णता से
मैं स्वयं ही विचलित हो उठता हूँ।


यह बचना
कभी-कभी एक आत्म-सुरक्षा-सा लगता है—
जैसे भीतर की हलचल को
कुछ क्षण के लिए स्थिर रहने दिया जाए।
पर स्थिरता भी
कब एक जड़ता में बदल जाती है,
यह पहचानना
सबसे कठिन होता है।


मन प्रश्नों की आकृतियों से
डरता नहीं,
उनकी निस्संग उपस्थिति से डरता है—
क्योंकि वे बिना शब्द
हमारे भीतर की खाली जगह
दिखा देते हैं।
और उस खालीपन का सामना
कोई भी सहजता से नहीं करता।


जीवन के आईने में
स्वयं को देखना
कभी प्रतिबिंब नहीं देता,
एक मौन संकेत देता है—
कि हम उसी क्षण
सबसे अधिक सत्य होते हैं
जब किसी और की छवि नहीं,
केवल अपनी अपरिभाषित रेखाएँ देखते हैं।


और अंत में—
बचने की सीमा भी होती है।
जब मन स्वयं अपने चारों ओर
घूमकर
उसी केंद्र पर लौट आता है
जहाँ हम खड़े होते हैं,
तब आत्म-सम्मुख होना
किसी निर्णय का नहीं,
एक अपरिहार्य अनुभूति का परिणाम बन जाता है—
शांत, अस्थिर,
पर धीरे-धीरे मुक्त करती हुई।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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