शीत में प्रीत ले रही अंगड़ाई
कुमार महेंद्रउर हिलोरित उष्ण उमंग ,
जपत_ तपत सर्द तृप्ति ओर ।
कंपन अंतर जीवन दर्शन,
रग रग उद्भव आनंद भोर ।
देख ठंड रूप अल्हड़ जवां ,
अष्ट प्रहर परिणय स्वप्न घड़ाई ।
शीत में प्रीत ले रही अंगड़ाई ।।
परिवेश छटा नवल धवल,
तपन संग अपनत्व अथाह ।
अलाव परिध मधुर संवाद,
नैराश्य वैमनस्य भाव स्वाह ।
शीतल विकल दैनिक चर्या,
हर कदम बचाव प्रयास कड़ाई ।
शीत में प्रीत ले रही अंगड़ाई ।।
दिवा_पटल पर रवि अठखेलियां,
अद्भुत मनहर अनुपम विशेष ।
धूप श्रृंगार दुल्हन सम,
दर्श सह खुशियां अधिशेष ।
परिधान_ खानपान गर्मा_ गर्म,
अंतःकरण मिलन मंत्र पढ़ाई ।
शीत में प्रीत ले रही अंगड़ाई ।।
जीवन शैली मस्त मलंग,
आचार विचार प्रणय सिक्त ।
निशि वैभव परम सुख दायक,
जनमानस विभेदी सोच रिक्त ।
सर्द मनोरमा प्रियेसी सदृश,
दर्शन अभिलाषा नैन गड़ाई ।
शीत में प्रीत ले रही अंगड़ाई ।।
*कुमार महेंद्र*
(स्वरचित मौलिक रचना)
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