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"अनन्तर"

"अनन्तर"

पंकज शर्मा
मेरी भाषा ने कभी
तुम्हें पुकारा नहीं
इच्छा के उच्छ्वास में,
वह तो ठहर गई
शब्दों के उस विराम पर
जहाँ चाहना
अपने ही भार से
मौन हो जाती है।


तुम्हारा होना
मेरे लिए वर्षा नहीं रहा,
कि तप्त देह पर
बूंदों की मुक्ति हो—
तुम तो वैसे ही बसे
जैसे समय
शिराओं में
घड़ी की टिक-टिक बिना
बहता है।


यह कोई
लौकिक आकांक्षा नहीं थी,
बस एक
अमर तृषा—
कि जैसे श्वास
अपने अस्तित्व को
सिद्ध नहीं करती,
बस निभाती है।


मैंने चाहा नहीं
कि तुम पास आओ,
केवल इतना
कि दूरियों के मानचित्र में
एक बिंदु रहे
जहाँ लौट सकूँ
अपने ही से बचकर।


देह का भविष्य
मुझे ज्ञात है—
धूम्र, राख,
काल की तीक्ष्ण जिह्वा।
पर मन
इतिहास नहीं रचता,
वह तो
आश्रय खोजता है।


यदि तुम्हारे हृदय के
किसी कोने में
मेरा नाम नहीं,
केवल एक
निस्तब्धता रह जाए—
तो वही
मेरा होना है।


मैं तुम्हारी स्मृति में
उपस्थिति नहीं चाहता,
केवल इतना कि
जब भी
तुम अकेले होओ,
वहाँ कोई प्रश्न न हो,
केवल शांति हो।


और यदि कभी
समय पूछे
मेरे होने का प्रमाण—
तो कहना,
वह यहाँ नहीं था,
वह तो
मेरे भीतर
एकांत बनकर
ठहरा था।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)


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