लक्ष्य-पथ के पथिक
रचना --------✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"उठो कि सोई चेतना से, उजियारा कब हो पाया,
महान पथों की पहचान में, मन अक्सर भरमाया।
जगा लो शक्ति अंतर की, जो दीप बनकर जलती,
भटके राहों के अंधेरों में, नव आशा फिर पलती।
जागरण ही वह ज्वाला है, जो भय का भी अंत करे,
मन में छिपे अवरोधों को, क्षण भर में ही भस्म करे।
थमो नहीं संघर्षों से, इनसे जीवन दृढ़ होता है,
कठिन तपों से ही सोना, कुंदन बनकर रोता है।
संघर्षों में जनमे मानव का चरित्र महान बन जाता,
काँटों से लड़कर ही आखिर फूलों तक पहुंच पाता।
सफलता कोई संयोग नहीं, यह तप, श्रम, साहस से जन्मे,
जो ठहर गए पथ बीचों में, वे लक्ष्य से पहले ही थमे।
चलो निरंतर लक्ष्य-पथ पर, मत ठहरो कोई बहाना,
नदी भी पत्थर चीर बहती, धैर्य बने उसका खजाना।
सतत प्रयासों से मानव का रूप नया आकार मिले,
साधारण भी असाधारण बन, जीवन को उपहार मिले।
जो थककर भी चलते रहते, वही शिखर तक जाते हैं,
अधरों पर विश्वास लिए, आकाश स्वयं झुक जाते हैं।
लक्ष्य मिला जब थमना मत, नई राह फिर चुन लेना,
जीवन का यह धर्म यही— उद्यम करके जग लेना।
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