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धर्म कभी नहीं होता दूर !

धर्म कभी नहीं होता दूर !

रचना --- डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"

न रुका—न थमा—न मुड़ा
धधकती थी धर्म-धरा की धूर
जग को झकझोरती हुई प्रतिध्वनि
वो महाभारत का रण-महासूर !


ध्वंस की धारा में भी
धर्म का दीप जलाए खड़े
भीम के प्रचंड वज्राघात से
कंप-कंप उठे दुराचार के गढ़ पड़े !


औंधे गिरे अहंकार के अक्षौहिणी
जब सत्य उठा अर्जुन के रूप
कृष्ण की आँखों में चमकी वाणी—
“धर्म किसी पुरुष का नहीं, पृथ्वी का स्वरूप।”


खंडित हुए कपट के दुर्ग
नंगी हो गई छल की तस्वीर
कुंठित बुद्धि का हर अभिमानी
बिन बोले हो गया लहूलुहान अधीर !


सत्य की तीखी तेजस्विता
कब रुकी किसी दुराग्रह की हद पर?
गांडीव चला तो चला ही निरंतर
कभी न थमी वह अग्नि प्रहर !


युगों से यही पाठ अमर—
न्याय जब पुकारे, उठना ही पड़ता है
धर्म-रथ यदि कृष्ण चला दें
तो कालयुग भी झुकना ही पड़ता है !


इसलिए—
न रुका था तब, न रुकेगा अब
अन्याय के आगे कौन भरपूर?
महाभारत का संदेश यही—
धर्म कभी नहीं होता दूर !
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