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पुष - माघ के जाड़ा

पुष - माघ के जाड़ा

जय प्रकाश कुवंर
कतनो स्वेटर मफलर पहनबऽ,
इनर, जैकेट भाई।
देह पर जेतना लादत ज‌इबऽ,
खाली शकल मोटा देखाई।।
शीतकाल के आपन रुतबा,
कहलो से ना कहाला।
पुष - माघ के जाड़ा पाला,
केकरो से सहल ना जाला।।
जैसे शरद ऋतु चढ़लस,
देह पर चादर आइल।
शरद बितल, हेमंत आइल तब,
कम्बल पड़ल दिखाई।।
अब हेमंत भी निकल ग‌इल बा,
शिशिर अब जोर लगवले बा।
बच्चा, बुढ़वा जवनकन के भी,
मोट रजाई ओढ़वले बा।।
पछुआ हवा धुंध चलल तब,
केकरो हाल का पुछल जाई।
बिना आग तपले ऐ भैया,
कवनो काम न आई रजाई।।
गरमी में जे आग वरसावस,
सूरज देव भी फीका बाड़े।
धुंध के आगे बेबस होके,
आपन मुंह लुकवले बाड़े।।
शीतकाल सबका पर हावी,
अग्नि देवता हीं काम अइहें।
आग ताप के जीवन बचावे खातिर उ,
घूर, अलाव, बोरसी में सम‌इहें।।
ओढ़ रजाई गरीब अमीर सबे,
अग्नि देव का तरफ नजर गड़वले बा।
अपना अपना सुविधा अनुसार,
आग के ओर हाथ बढ़वले बा।। जय प्रकाश कुवंर
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