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प्रेम समर्पण समझ न पाया

प्रेम समर्पण समझ न पाया

अरुण दिव्यांश
बालपन खेलते खेलते बिताया ,
किशोरावस्था में नादानी छाया ।
युवा लैला मजनूॅं मन में आया ,
प्रेम समर्पण समझ न पाया है ।।
जाने कौन मस्तिष्क रेंगा कीड़ा ,
अनाप शनाप से ही था भीड़ा ।
उठा लिया मैं लोभ क्रोध बीड़ा ,
समझ न पाया प्रेम का पीड़ा ।।
नहीं बन पाया मैं तपाया सोना ,
अब आता मुझको बहुत रोना ।
जब देखते देखते छाया बुढ़ापा ,
तन को जब मुझे पड़ा है ढोना ।।
समय था तब समझ नहीं आया ,
समझ आया तब समय न पाया ।
शिशु बाल किशोर युवा गॅंवाया ,
फिर प्रौढ़ बाद बुढ़ापा था छाया ।।
प्रेम प्यार होता बहुत ही पावन ,
जब व्यवहार निखरते मनभावन ।
प्यारी सी नजरें औ मृदुल वाणी ,
तब जीवन होता बहुत सुहावन ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
छपरा ( सारण )बिहार ।
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