"उत्तर-पुस्तिका के बाहर"
पंकज शर्मा
कभी प्रश्नहल्के थे—
उनमें भार नहीं था,
क्योंकि उत्तर पहले से तय थे
और हम केवल उन्हें
पहचानने का अभिनय करते थे।
रिक्त स्थान
खाली नहीं होते थे,
वे भरोसे से भरे होते थे—
जैसे किसी परिचित कमरे में
अँधेरे में भी रास्ता मिल जाए।
अब जीवन
ऐसा प्रश्नपत्र है
जिसमें कोई निर्देश नहीं,
और हर पंक्ति के साथ
नया संदेह जुड़ता जाता है।
यहाँ रिक्तियाँ
छोड़ी नहीं जातीं—
वे बनती हैं
किसी के चले जाने से,
किसी के चुप हो जाने से,
या किसी वाक्य के
अधूरा रह जाने से।
और उन्हें भरने के लिए
कोई शब्द पर्याप्त नहीं होता।
सही और गलत
यहाँ नैतिक गणित नहीं,
बल्कि परिस्थितियों की धुँध है—
जिसमें निर्णय
केवल पीछे मुड़कर
स्पष्ट दिखाई देते हैं।
एक शब्द में उत्तर देना
अब संभव नहीं,
क्योंकि एक शब्द
अनुभव की पूरी देह को
ढो नहीं सकता।
मन चाहता है
लिखता जाऊँ—
लंबा, असंगठित,
जहाँ वाक्य
अपने अर्थ खोजते हुए
थक जाएँ।
जहाँ मौन भी
एक वाक्य हो,
और विरामचिह्न
भी कुछ कहें।
पर सामने
कोई निश्चित पाठक नहीं—
सिर्फ़ एक संभावना है
कि शायद
कहीं, कोई,
इस उत्तर को
समझने की कोशिश करेगा।
फिर भी लेखन रुकता नहीं।
क्योंकि यह अंक पाने की प्रक्रिया नहीं,
यह स्वयं को
बनाए रखने की जिद है।
लिखना
अपने अस्तित्व को
प्रमाणित करना है
उस परीक्षा में
जिसका परिणाम
कभी घोषित नहीं होता।
और जब सब उत्तर
लिखे जा चुके होते हैं—
तब समझ में आता है
कि जीवन
वहीं से शुरू होता है
जहाँ प्रश्न
ख़त्म हो जाते हैं।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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