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“गाँव की नई दस्तक”

“गाँव की नई दस्तक”

रचना --- ✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
चल पड़े हैं पाँव धूल में,
फिर वही पुराना ठौर,
खपरैलों की साँसों में अब भी
छिपा हुआ है भूला दौर।

टूटी खटिया, बुझती ढिबरी,
जीवन की सादी थाती,
फिर भी हर चेहरे पर देखो
उम्मीदों की जगती ज्योति।

ओसारे की चद्दर फट कर
जैसे किस्सा कह जाती,
गाँव की हर सहमी दीवार
अपनी गुहार सुनाती।

गौशाला की भूलभुलैया में
ममता का ही ऊन धरा,
कंधों पर बोझा—पर आँखों में
फिर भी गंगा जैसा उजियारा।

कुइयों के मटमैले जल में
रिश्तों की मीठी बू है,
गारी-गुफ्तगू-तकरारों में
अपनापन की ही धू है।

आम–पीपर–गुलर–बरगद
आज भी छाया बांट रहे,
हवा में उड़ते हर पत्ते
जीवन का पाठ पढ़ा रहे।

पर अब राहों में कुछ और भी,
नयी हवा की दस्तक है,
राजनीति के रंग-बिरंगे चिह्नों में
टूटती-जुड़ती उनकी पकड़ है।

फिर भी गाँव तो गाँव है साहिब—
मिट्टी की सच्ची पहचान,
सरल हृदय, सीधे शब्द,
प्रेम-विश्वास की थाती महान।

आपकी आंखों ने जो देखा—
वह गाँव का रूप पुराना,
हमने जो पाया, वह उभरता
एक नया, बदलता जमाना।
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