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दरकता धुआँ :: वेश्यालय — एक दर्द की दास्तान

दरकता धुआँ :: वेश्यालय — एक दर्द की दास्तान

रचना ---
✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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टिमटिम—टिमटिम बुझते दीये
इन गलियों की साँसों में
बासी सपनों की किरच-किरच
बिखरी है इतिहासों में !


काँच-सी टूटी हँसी में
दर्द का काजल घुलता है
नैनो के ताल में यहाँ
कोई गंगाजल न मिलता है !


थिरकती पायल की आवाज़
भूख की मजबूरी गाती है
मेनका-सी रूप वाली भी
अंदर से रो ही जाती है !


रंगे हुए दरवाज़ों वाला
ये लाल-लाल सा शहर
हर मुस्कान की कीमत है
सिक्कों का बदलता पहर !


कोई सपनों का फेरीवाला
यहाँ कभी नहीं आता
जो आता है, बस क्षणभर
दिल का सौदा कर जाता !


थके हुए नैनों में बस
बस एक ही इच्छा पलती—
काश! कोई कह दे कभी
“चलो… तुम भी घर चलती।”
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