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वोट चोरी' की बहस: सड़क से संसद तक, लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा

वोट चोरी' की बहस: सड़क से संसद तक, लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा

सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय लोकतंत्र एक अद्भुत सर्कस है, जहाँ हर दशक में रिंगमास्टर और जोकर अपने करतब बदलते हैं। यह सर्कस 1950 के दशक के धूल भरे अखाड़ों से शुरू हुआ और आज वातानुकूलित मीडिया स्टूडियो तक पहुँच गया है, लेकिन इसका केंद्रीय कलाकार, हमारा प्यारा 'लुटेरा', कभी गायब नहीं हुआ। उसने बस अपनी वेशभूषा, उपकरण और लूट का तरीका बदल दिया है। यह कहानी है—एक क्रूर, भौतिक अपराधी से लेकर एक चालाक, सफेदपोश 'घोटालेबाज' तक के उसके शानदार विकास की, जिसने भारतीय चुनावी प्रक्रिया को एक अनंत, व्यंगात्मक नाटक में बदल दिया है।
पुराने लुटेरा— बूथ की लूट का जमाना(1950 से 1990 ) - एक समय था, जब चुनाव जीतना 'मर्दानगी' का सबूत था। हमारे शुरुआती 'लुटेरा' को टेक्नोलॉजी का ज्ञान नहीं था; वह शारीरिक बल और स्थानीय भय पर निर्भर था। उसका कार्यस्थल था मतदान केंद्र। वह एक सीधा-सादा आदमी था। उसका उपकरण? बंदूक, लाठी और... हाँ, मतपेटी! उसकी लूट स्पष्ट थी: वह दलितों, आदिवासियों और गरीबों को वोट डालने से रोकता था और जबरन बुर्का पहनकर नकली वोट (डमी वोटिंग) डालता था। यह लूट प्रत्यक्ष, हिंसक और तत्काल थी। अगर विरोध हुआ, तो मतपेटी नदी में, या आग के हवाले। यह युग 'राजनीति के अपराधीकरण' का स्वर्ण युग था। चुनाव जीतना योग्यता नहीं, बल्कि गुंडागर्दी के प्रदर्शन पर निर्भर करता था। लूट का लक्ष्य केवल सीट जीतना नहीं, बल्कि सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना था। यह हमारे लोकतंत्र का बचपन था—कच्चा, हिंसक, और बेहद पारदर्शी! कम से कम, लूटा जा रहा था, यह सबको दिखता तो था। लेकिन इस पुराने लुटेरे ने एक महान काम किया: उसने चुनाव आयोग को इतना शर्मिंदा किया कि उन्हें सुधार करना पड़ा। 1990 के दशक में फोटो पहचान पत्र आए, और अंततः, आया हमारा 'तकनीकी मसीहा'—इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनघोटालेबाज का उदय—सफेदपोश, डिजिटल और अदृश्य (2000s से वर्तमान) - ईवीएम ने एक झटके में हमारे प्यारे पुराने लुटेरे को बेरोज़गार कर दिया। वह बंदूक और मतपेटी लेकर कहाँ जाता? मशीन तोड़ी नहीं जा सकती, फर्जी वोट डालना मुश्किल। लेकिन जैसा कि महान डाकुओं ने कहा है, "तरीका बदलो, इरादा नहीं।" लुटेरा गायब नहीं हुआ; वह आधुनिक, विकसित रूप में 'घोटालेबाज' बनकर लौटा। लुटेरा (1990s) घोटालेबाज (2020s) - उपकरण: बंदूक, लाठी। उपकरण: पॉलिसी फाइल, लीगल लूपहोल्स, डेटा एनालिटिक्स, क्लाउड स्टोरेज। लूट: मतदाता का सीधा वोट। लूट: सार्वजनिक खजाना, सरकारी ठेके, संवैधानिक संस्थाओं पर नियंत्रण। विशेषता: शारीरिक बल, दिखता है। विशेषता: चालाकी, अदृश्य, कानूनी रूप से सुरक्षित।
घोटालेबाज की नई लूट है: सिस्टम कैप्चरिंग। वह खुली हिंसा के बजाय जटिल वित्तीय हेरफेर, प्रशासनिक सांठगाँठ और 'सिस्टम इंटीग्रेशन' (SIS) के माध्यम से काम करता है। यह लूट इतनी जटिल है कि इसे समझना आम जनता के लिए उतना ही कठिन है जितना बजट के घाटे को समझना। यह जनता के संसाधनों को धीमा ज़हर देकर लूटता है।
ईवीएम ने बूथ कैप्चरिंग को खत्म किया, लेकिन 'वोट चोरी' की बहस को एक नया, तकनीकी और वैचारिक मंच देता है। अब हर चुनावी हार के बाद एक ही आवाज़ आती है: "ईवीएम हैक हो गई!" यह हमारे राजनीतिज्ञों की नई कॉमेडी है। हारने वाला दल ईवीएम को दोष देता है, क्योंकि यह स्वीकार करना कि उनकी नीतियाँ खराब थीं या उन्होंने कड़ी मेहनत नहीं की, उनके अहं के लिए असहनीय है। ईवीएम बन गई है 'राजनीतिक विफलता का तकनीकी बलि का बकरा बनाया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस कॉमेडी में एक नया प्रोप जोड़ा—वीवीपैट एक शानदार विचार था: 'अगर आपको ईवीएम पर भरोसा नहीं है, तो एक कागजी पर्ची देख लो।' लेकिन अब बहस यह है: क्या हमें 100% पर्चियाँ गिननी चाहिए? विपक्ष: हाँ! क्योंकि 5 पर्चियाँ गिनना, यह साबित करता है कि ईवीएम सही काम कर रही है, उतना ही विश्वसनीय है जितना पूरे समुद्र को एक चम्मच से चखना। सत्ता पक्ष और भारतीय चुनाव आयोग नहीं! क्योंकि 100% गिनती में देरी होगी, और देरी से चुनाव की 'पवित्रता' भंग होगी! (और शायद गिनती में कुछ ऐसा निकल जाए जो नहीं दिखना चाहिए!) ईसीआई का प्रोटोकॉल शानदार है: "अगर ईवीएम और वीवीपैट बेमेल हों, तो वी वी पेट पर्ची अंतिम परिणाम है।" यानी, इलेक्ट्रॉनिक चमत्कार पर कागजी पर्ची की जीत! यह साबित करता है कि हमारे आधुनिक, तकनीकी लोकतंत्र में, अंततः हम अभी भी कागज़ के एक छोटे से टुकड़े पर सबसे अधिक भरोसा करते हैं। जब भौतिक लूट और ईवीएम विवाद पर्याप्त नहीं रहे, तो 'घोटालेबाज' ने अपना सबसे शक्तिशाली उपकरण उठाया: जुबान। संसद का मंच अब केवल कानून बनाने का नहीं, बल्कि वैचारिक लूट का अखाड़ा बन गया है।
'वोट चोरी' का सवाल संसद के भीतर एक सर्कस बन जाता है। विपक्ष का तर्क: 'संस्थाएँ बिक चुकी हैं! लोकतंत्र खतरे में है! हमें 100% पारदर्शिता चाहिए!' सत्ता पक्ष का तर्क: 'तुम हार नहीं पचा पाए! संवैधानिक संस्थाओं पर हमला करना राष्ट्र-विरोधी है! तुम्हारी मांगें अपरिपक्व हैं । तर्कशक्ति की लूट: भड़काऊ भाषा, अमर्यादित टिप्पणियाँ, और भावनात्मक मुद्दे जनता का ध्यान रोज़गार, स्वास्थ्य, और अर्थव्यवस्था जैसे कठिन सवालों से हटाकर भावनात्मक विवादों पर केंद्रित कर देते हैं। जनता तर्क के बजाय भावनाओं के आधार पर वोट डालती है—यही आज की सबसे बड़ी वैचारिक लूट है। धार्मिक या जातिगत ध्रुवीकरण करने वाली टिप्पणियाँ देश के ताने-बाने को लूटती हैं, ताकि वोटों की फसल काटी जा सके।1990 के दशक का लुटेरा मतदाता का वोट छीनता था; आज का 'घोटालेबाज' मतदाता की बुद्धि और तर्कशक्ति छीनता है। और यह लूट खुलेआम संसद के मंच से होती है। भारतीय लोकतंत्र की यह यात्रा एक सतत कॉमेडी ऑफ़ एरर्स है—एक ऐसी कहानी जहाँ लुटेरा हमेशा मौजूद रहा, बस वह हर दशक में अधिक चालाक, अधिक अदृश्य और अधिक कानूनी रूप से सुरक्षित होता गया। हमने बूथ की धूल से ईवीएम की तकनीक तक का शानदार सफर तय किया है। हम गर्व कर सकते हैं कि हमने 'हिंसक लुटेरा' युग को समाप्त कर दिया। लेकिन हम अब एक ऐसे युग में हैं, जहाँ 'घोटालेबाज' कानून की किताबों, फाइल कैबिनेटों और माइक्रो-टारगेटिंग डेटा में छिपा है। आज, लोकतंत्र की रक्षा केवल इस बात पर निर्भर नहीं करती कि मशीन काम कर रही है या नहीं, बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि नागरिक 'घोटालेबाज' की चालाकी और उसकी वैचारिक लूट को कितनी गहराई से समझते हैं। यह विकसित होता हुआ लोकतंत्र है—जहाँ हारना एक 'तकनीकी खराबी' या 'संस्थागत साज़िश' है, और जीतना हमेशा एक 'निष्पक्ष जनमत' करार दिया जाता है। भारतीय चुनावी प्रक्रिया के लचीलेपन को हमारा सलाम, और साथ ही, उस निरंतर कॉमेडी के प्रति हमारी गहरी चिंता भी, जो 'लुटेरा' और 'घोटालेबाज' देश के सामने पेश कर रहे हैं।
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