नदियाॅं
अरुण दिव्यांशभरे को ही भरता जग भी ,
गड्ढे की खुदाई होती है ।
खुदे मिट्टी से बनता पर्वत ,
गड्ढा न भरपाई होती है ।।
सागर को देखो भरा पूरा ,
उसी को नदियाॅं भरती हैं ।
सागर छुपाता सारे जल ,
नदियाॅं छलछल करती हैं ।।
नदी जल छुपाता सागर ,
नदियाॅं बदनाम होती हैं ।
नदियों से है जीव जीवन ,
इनकी कहाॅं नाम होती है ।।
अथक चले नदी निरंतर ,
जिसमें न सुबे शाम होती है।
भरे में भी पेट नहीं भरता ,
सागर नियत खाम होती है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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