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वीबी-जी राम जी अधिनियम 2025 संरचनात्मक कमियों को दूर करता है

वीबी-जी राम जी अधिनियम 2025 संरचनात्मक कमियों को दूर करता है

श्री शिवराज सिंह चौहान 

भारत के राष्ट्रपति ने विकसित भारत- रोज़गार और आजीविका के लिये गारंटी मिशन (ग्रामीण) अधिनियम, 2025 को मंजूरी दी है। यह कानून वैधानिक मजदूरी रोजगार गारंटी को बढ़ाकर 125 दिन करता है और सशक्तिकरण, विभिन्न योजनाओं के आपसी समन्वय और व्यापक वितरण के माध्यम से ग्रामीण आजीविका को मजबूत करता है, ताकि ग्रामीण भारत मजबूत, सक्षम और आत्मनिर्भर बन सके।
सुधारों की गलत व्याख्या

वीबी- जी राम जी अधिनियम लागू होते ही कुछ लोगों ने ऐसी बातें कही हैं, जो गहराई से देखने पर सही नहीं ठहरतीं। कहा जा रहा है कि रोजगार गारंटी कमजोर कर दी गई है, विकेंद्रीकरण और मांग-आधारित अधिकारों को बिना परामर्श के कमज़ोर किया गया है और यह सुधार असल में राजकोषीय खर्च घटाने का तरीका है, जिसे ढांचे में बदलाव के रूप में पेश किया जा रहा है। लेकिन ये सभी दावे इस कानून के असली उद्देश्य और प्रावधानों को ठीक से न समझ पाने के कारण किए जा रहे हैं।

इस गलतफहमी का मूल कारण एक गहरी वैचारिक त्रुटि है- यह मान लेना कि कल्याण और विकास एक दूसरे के विरोधी विरोधी विकल्प हैं। नया ढांचा इसके बिल्कुल उलट सोच पर आधारित है : कल्याण, जो कि वैधानिक आजीविका गारंटी को मजबूत करने पर केंद्रित है, और विकास, जो कि टिकाऊ बुनियादी ढांचे के निर्माण और उत्पादकता वृद्धि पर केंद्रित है, परस्पर एक दूसरे को मजबूत करते हैं। आय सहायता, संपत्ति सृजन, कृषि स्थिरता और लंबे समय की ग्रामीण उत्पादकता को अलग-अलग नहीं, बल्कि एक साथ चलने वाली प्रक्रिया माना गया है। यह केवल कोरी कल्पना नहीं है, बल्कि कानूनी संरचना में ही शामिल सोच है।

यह कहना कि कानूनी रोजगार अधिकार कमजोर कर दिया गया है, सही नहीं है। इस कानून में रोजगार गारंटी का वैधानिक और न्यायिक अधिकार बरकरार रखते हुए उसे और मजबूत किया गया है। अधिकार घटाने के बजाय इसे 100 दिनों से बढ़ाकर 125 दिन कर दिया गया है। पहले जो प्रक्रियागत शर्तें बेरोजगारी भत्ता मिलने में रुकावट बन जाती थीं, उन्हें हटा दिया गया है और समयबद्ध शिकायत निवारण व्यवस्था को और सुदृढ़ किया गया है। यह सुधार लंबे समय से मौजूद उस अंतर को दूर करने का प्रयास है, जो काग़ज़ पर किए गए वादे और लोगों के धरातल के अनुभव के बीच था।

यह भी कहा जा रहा है कि मांग-आधारित रोजगार छोड़कर ऊपर से थोपे गए योजनागत मॉडल को लागू कर दिया गया है। यह भी एक गलत धारणा है। काम की मांग पहले की तरह ग्रामीण मजदूरों से ही आती है। फर्क यह है कि अब काम तभी शुरू नहीं किया जाएगा जब मजबूरी या संकट बढ़ जाए, बल्कि पहले से ही भागीदारी आधारित ग्राम-स्तरीय योजना बनाकर तैयारी कर ली जाएगी। इससे यह सुनिश्चित होगा कि जब मजदूर काम मांगें, तो उनके लिए तुरंत काम उपलब्ध हो, और प्रशासनिक तैयारी न होने के कारण उन्हें मना न किया जाए। इस तरह योजना बनाना मांग को दबाता नहीं, बल्कि उसे सही रूप से लागू करता है।

केंद्रीकरण का आरोप इस कानून की पूरी संरचना को नज़रअंदाज़ करता है। ग्राम पंचायतें पहले की तरह ही योजना बनाने और लागू करने की प्रमुख संस्था बनी रहती हैं और ग्राम सभाओं के पास स्थानीय योजनाओं को मंजूरी देने का अधिकार यथावत है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब विकेंद्रीकरण बिना व्यवस्था के या कभी-कभार होने वाली प्रक्रिया नहीं रहेगा, बल्कि एक नियमित, व्यवस्थित और सहभागी प्रणाली के रूप में होगा। विकसित ग्राम पंचायत योजनाओं को ब्लॉक, ज़िला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर जोड़ा जाएगा ताकि विभिन्न क्षेत्रों में बेहतर तालमेल, समन्वय और पारदर्शिता हो सके — न कि स्थानीय प्राथमिकताओं को दबाने के लिए। केंद्रित किया गया है सिर्फ व्यवस्था और सामंजस्य को, निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय ही रहेगा। इस तरह यह कानून बिखराव को ठीक करता है, विकेंद्रीकरण को कमज़ोर नहीं करता।

यह आरोप भी सही नहीं है कि इस सुधार को बिना किसी परामर्श के लागू कर दिया गया। इस विधेयक से पहले राज्य सरकारों के साथ व्यापक विचार-विमर्श, तकनीकी कार्यशालाएँ और विभिन्न हितधारकों के साथ विस्तृत चर्चाएँ की गईं। गांव-स्तरीय योजना संरचना, विभिन्न योजनाओं के बीच समन्वय की व्यवस्था और डिजिटल गवर्नेंस सिस्टम जैसे प्रमुख प्रावधान राज्यों से मिले सुझावों और वर्षों के अनुभव से सीखे गए सबक के आधार पर तैयार किए गए हैं।
आवंटन में वृद्धि, समानता

यह धारणा भी तथ्यों से मेल नहीं खाती कि पिछले दशक में रोजगार गारंटी को लगातार कमजोर किया गया। बजट आवंटन 2013-14 के ₹33,000 करोड़ से बढ़कर 2024-25 में ₹2,86,000 करोड़ हो गया। 2013-14 तक कुल 1,660 करोड़ मानव-दिवस के बदले अब तक 3,210 करोड़ मानव-दिवस का सृजन हुआ। केंद्र से जारी धनराशि ₹2.13 लाख करोड़ से बढ़कर ₹8.53 लाख करोड़ हो गई और पूरे हुए कार्य 153 लाख से बढ़कर 862 लाख तक पहुँच गए। महिलाओं की भागीदारी 48% से बढ़कर 56.73% हो गई। अब 99% से अधिक फंड ट्रांसफर आदेश समय पर जारी होते हैं और लगभग 99% सक्रिय श्रमिक आधार पेमेंट ब्रिज से जुड़े हैं। ये सभी रुझान उपेक्षा नहीं, बल्कि निरंतर प्रतिबद्धता और बेहतर प्रदर्शन को दिखाते हैं।

लेकिन समय के साथ यह भी साफ हो गया कि पुराने ढांचे में खुद कुछ बुनियादी कमजोरियां थीं-जैसे बीच-बीच में ही काम मिलना, बेरोजगारी भत्ता लागू कराने की कमजोर व्यवस्था, बिखरे हुए और असंगठित तरीके से संपत्ति/संसाधन निर्माण, और दोहराव व फर्जी प्रविष्टियों की गुंजाइश। ये कमजोरियां सूखे के समय, बड़े पैमाने पर पलायन के दौर में और कोविड-19 जैसी आपदा के दौरान जमीन पर साफ दिखाई दीं।

नए कानून के तहत की गई वित्तीय व्यवस्था को भी गलत तरीके से सरकारी जिम्मेदारी छोड़ने के रूप में गलत तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है। सच यह है कि केंद्र सरकार का योगदान बढ़ रहा है। केंद्र का हिस्सा ₹86,000 करोड़ से बढ़कर लगभग ₹2,95,000 करोड़ तक हो रहा है, जो ग्रामीण रोजगार के प्रति मजबूत और बढ़ते समर्थन को दर्शाता है। 60:40 की फंडिंग व्यवस्था वैसे ही है जैसी अन्य केंद्रीय सहायता प्राप्त योजनाओं में वर्षों से लागू है, जबकि पूर्वोत्तर और हिमालयी राज्यों तथा जम्मू-कश्मीर के लिए 90:10 का अलग अनुपात रखा गया है। इसलिए यह किसी तरह की वित्तीय पीछे हटने का संकेत नहीं,बल्कि साझा जिम्मेदारी और जवाबदेही को और मजबूत करने का संकेत है।
न्याय और समानता सुनिश्चित करने के लिए धन आवंटन नियमों के आधार पर किया जाता है, और राज्यों का हिस्सा तय करने के लिए नियमों में दिए गए स्पष्ट व वस्तुनिष्ठ मानदंडों का पालन किया जाता है। राज्यों को सिर्फ लागू करने वाली एजेंसियों की तरह नहीं, बल्कि विकास के भागीदार के रूप में देखा गया है, जिन्हें कानूनी ढांचे के भीतर अपनी योजना अधिसूचित करने और लागू करने का अधिकार दिया गया है। लचीलापन भी बरकरार रखा गया है- प्राकृतिक आपदा या विशेष परिस्थितियों में राज्य अतिरिक्त छूट, अधिक प्रकार के कार्य और अस्थायी रूप से रोजगार बढ़ाने जैसी सिफारिशें कर सकते हैं। इस तरह नियम-आधारित आवंटन और परिस्थितियों के अनुसार लचीलापन, दोनों के बीच संतुलन बनाते हुए सहकारी संघवाद को मजबूत किया गया है।

यह कानून राज्यों को यह अधिकार देता है कि वे पहले से ही एक वित्तीय वर्ष में कुल 60 दिनों की अवधि तय कर सकें, जो बुआई और कटाई जैसे कृषि के व्यस्त मौसमों को कवर करे, और उन दिनों के दौरान काम न कराया जाए। यह घोषणा ज़िला, ब्लॉक या ग्राम पंचायत स्तर पर, स्थानीय मौसम और कृषि परिस्थितियों के आधार पर अलग-अलग ढंग से की जा सकती है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि बढ़ी हुई रोजगार गारंटी कृषि कार्यों में बाधा न बने, बल्कि उसके साथ संतुलन बनाकर चले।

यूपीए का रिकॉर्ड

कांग्रेस नेतृत्व संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही मनरेगा से जुड़े वादों को अमल में लाने में विफल रही। कांग्रेस के घोषणापत्र में " प्रतिदिन 100 रुपये की वास्तविक मजदूरी पर कम से कम 100 दिन का काम" देने का वादा किया गया था, लेकिन सरकार ने 2009 में ही मज़दूरी 100 रुपये पर सीमित कर दी और कई सालों तक महंगाई और ग्रामीण संकट की अनदेखी करते हुए इसे इसे बढ़ाया भी नहीं। केंद्र सरकार ने खुद स्वीकार किया कि राज्य सरकारें इस योजना के तहत मनमाने ढंग से काम कर रही थीं और मज़दूरी न बढ़ाने का कारण भी राज्यों के 'अनियंत्रित बढ़ोतरी' को बताया। यह स्वीकारोक्ति अपने आप में शासन की एक गंभीर विफलता दिखाती है: कांग्रेस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार अपनी ही राज्य सरकारों को नियंत्रित करने में असमर्थ थी, जिसके कारण मनरेगा में दुरुपयोग, फर्जी जॉब कार्ड और वित्तीय गड़बड़ियां जैसी समस्याएं पैदा हो गईं।

यूपीए के दूसरे कार्यकाल में इस योजना के प्रति प्रतिबद्धता लगातार कमजोर होती गई। 2010-11 में ₹2,40,100 करोड़ के बजट को घटाकर 2012-13 तक सिर्फ ₹33,000 करोड़ कर दिया गया, जबकि राज्यों की ओर से मांग बढ़ रही थी। 2013 में संसद में दिए गए जवाब में तत्कालीन राज्यमंत्री राजीव शुक्ला ने माना कि मनरेगा के तहत रोजगार पाने वाले श्रमिकों की संख्या 2010-11 के 7.55 करोड़ से घटकर नवंबर 2013 तक सिर्फ 6.93 करोड़ रह गई। धन जारी करने में देरी, भुगतान में पारदर्शिता की कमी और प्रशासनिक उदासीनता ने मजदूरों को काम मांगने से हतोत्साहित किया, जिससे कानून में दी गई रोजगार गारंटी कमजोर पड़ गई।

महालेखा परीक्षक (कैग) की 2013 की रिपोर्ट ने यूपीए के समय मनरेगा की असल स्थिति उजागर कर दी। रिपोर्ट में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन सामने आया- 4.33 लाख से ज्यादा फर्जी या गलत जॉब कार्ड, हजारों करोड़ रुपये बिना हिसाब के निकासी और अनियमित कामों में गंवाए गए, 23 राज्यों में मजदूरी का भुगतान देर से हुआ या रोका गया, और देश की आधी से ज्यादा ग्राम पंचायतों में सही रिकॉर्ड तक नहीं रखा गया। जिन राज्यों में सबसे ज्यादा ग्रामीण गरीब हैं-बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र, वे अपने आवंटित धन का केवल लगभग 20% ही खर्च कर पाए। यानी योजना वहीं नाकाम रही, जहां इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।

कल्याण और विकास के बीच चयन के रूप में बहस को प्रस्तुत करना गलत है। जब कल्याण मजबूत रोजगार गारंटी पर आधारित हो और विकास टिकाऊ ग्रामीण बुनियादी ढांचे और उत्पादकता पर आधारित हो, तो ये एक-दूसरे के विरोध में नहीं बल्कि एक-दूसरे पर निर्भर हैं। असली निर्णय यह था कि क्या उस ढांचे को स्थिर रखा जाए जो अक्सर उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता था, या इसे एक आधुनिक, लागू करने योग्य और एकीकृत रोजगार गारंटी प्रणाली में सुधारा जाए जो विकास के माध्यम से कल्याण को बढ़ावा दे। नया कानून रोजगार का कानूनी अधिकार बनाए रखता है, अधिकारों को बढ़ाता है, श्रमिक सुरक्षा को मजबूत करता है और वर्षों के कार्यान्वयन में सामने आई संरचनात्मक कमजोरियों को ठीक करता है। यह विनाश नहीं, बल्कि अनुभव पर आधारित नवीनीकरण की प्रक्रिया है।
(लेखक भारत सरकार में कृषि एवं किसान कल्याण एवं ग्रामीण विकास मंत्री हैं।)
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