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कार्तिक पूर्णिमा: जब शिव बने त्रिपुरारी और देवता उतरे धरती पर

कार्तिक पूर्णिमा: जब शिव बने त्रिपुरारी और देवता उतरे धरती पर

सत्येन्द्र कुमार पाठक
कार्तिक पूर्णिमा, जिसे त्रिपुरारी पूर्णिमा या देव दिवाली के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू पंचांग की सबसे पवित्र तिथियों में से एक है। यह तिथि मात्र स्नान-दान का पर्व नहीं, बल्कि शिव के क्रोध से उपजी विजय, विष्णु की करुणा और गुरु नानक देव जी के प्रकाश का महासंगम है। आइए, इस दिवस के चमत्कारी और ऐतिहासिक महत्व को विस्तार से समझते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के इतिहास में सबसे बड़ी घटना त्रिपुरासुर नामक महादैत्य का वध है। इसी विजय के कारण भगवान शिव को 'त्रिपुरारी' कहा गया और इस तिथि को 'त्रिपुरारी पूर्णिमा' नाम मिला।चाक्षुष मन्वन्तर में तारकासुर के तीन पुत्रों (तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली) ने कठोर तपस्या से ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया। उन्हें स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल के बीच विचरण करने वाले सोने, चाँदी और लोहे के तीन अभेद्य नगरों (त्रिपुरों) का स्वामित्व मिला।: उन्हें यह वरदान मिला कि इन तीनों नगरों को केवल वही व्यक्ति नष्ट कर सकता है जो तीनों नगरों के एक साथ, एक सीध में आने पर, केवल एक ही बाण से उन्हें भस्म कर दे। अपने वरदान के अहंकार में तीनों असुरों ने तीनों लोकों में अत्याचार मचा दिया। देवताओं को उनके नगरों से बाहर निकाल दिया गया।जब देवता त्रस्त होकर शिव की शरण में पहुँचे, तब भगवान शिव ने स्वयं इन असुरों का वध करने का निर्णय लिया। उन्होंने एक ऐसा रथ तैयार किया जिसमें समस्त देवी-देवताओं की शक्ति समाहित थी। जब तीनों त्रिपुर एक विशेष काल में, एक सीध में आए, तब महादेव ने अपने दिव्य बाण से उन तीनों को भस्म कर दिया। यह अद्भुत विजय कार्तिक पूर्णिमा को मिली थी।
त्रिपुरासुर के संहार की खुशी में, देवताओं ने स्वर्ग में नहीं, बल्कि पृथ्वी पर आकर दीपोत्सव मनाया। असुरों पर मिली इस महान विजय की खुशी में, सभी देवताओं ने दीप जलाकर भगवान शिव की आराधान देवता स्वयं काशी (वाराणसी) के गंगा तट पर उतरे और लाखों दीये जलाए। तभी से, कार्तिक अमावस्या की दिवाली के ठीक पंद्रह दिन बाद, कार्तिक पूर्णिमा को देव दिवाली मनाई जाती है।: इस दिन शाम को गंगा और अन्य पवित्र नदियों के घाटों को असंख्य दीपों से सजाया जाता है। दीपदान को इस दिन का सबसे बड़ा पुण्य कर्म माना जाता है, क्योंकि यह अंधकार पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई और असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है।
कार्तिक पूर्णिमा सिर्फ हिंदू धर्म के लिए ही नहीं, बल्कि सिख धर्म के लिए भी एक महापर्व है। सिखों के प्रथम गुरु और संस्थापक, गुरु नानक देव जी, का जन्म भी इसी पावन तिथि पर हुआ था। सिख समुदाय इस दिन को गुरुपर्व या प्रकाशोत्सव के रूप में मनाता है। इस अवसर पर गुरुद्वारों को सजाया जाता है, अखंड पाठ (पवित्र ग्रंथ का निरंतर पाठ) होता है, और विशाल नगर कीर्तन (धार्मिक जुलूस) निकाले जाते हैं। यह पर्व हमें गुरु नानक देव जी के सार्वभौमिक संदेशों— एक ओंकार (ईश्वर एक है), निस्वार्थ सेवा, और प्रेम के मार्ग—को याद दिलाता है।
कार्तिक पूर्णिमा को स्नान-दान का पर्व भी कहा जाता है, जिसका गहरा संबंध भगवान विष्णु के कृत्यों से है।कार्तिक पूर्णिमा को गंगा, यमुना या किसी भी पवित्र नदी में सूर्योदय से पूर्व स्नान करना अत्यधिक फलदायी माना जाता है। मान्यता है कि यह स्नान, जिसे कार्तिक स्नान कहते हैं, व्यक्ति को सभी पापों से मुक्त कर मोक्ष की ओर ले जाता है।मत्स्य पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु ने इसी तिथि पर सृष्टि की रक्षा के लिए अपना प्रथम अवतार, मत्स्यावतार, लिया था।: बिहार का सारण जिले के सोनपुर में स्थित हरिहर नाथ क्षेत्र (जहाँ गंगा और गंडक नदी का संगम होता है) इस दिन विशेष महत्व रखता है। यह स्थान गजेंद्र मोक्ष की पौराणिक कथा से जुड़ा हुआ है, जहाँ भगवान विष्णु ने एक हाथी को मगरमच्छ के चंगुल से मुक्त कर उसे मोक्ष प्रदान किया था। यहाँ हरि (विष्णु) और हर (शिव) दोनों की पूजा से भक्तों को अपार पुण्य की प्राप्ति होती है। कार्तिक पूर्णिमा आस्था, भक्ति और समन्वय का एक अदभुत मेल है। यह हमें याद दिलाता है कि बुराई कितनी भी बड़ी क्यों न हो, सत्य और धर्म की विजय निश्चित है। इस दिन दीपदान, पवित्र नदियों में स्नान और दान करने से जीवन में सुख, समृद्धि और परम मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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