"मंच के पार"
पंकज शर्माकुपथ पर दौड़ता वह रथ,
अब दिशा का ज्ञाता कहलाता है —
जिसकी उँगली उठती है,
वहीं झुक जाते हैं जनसमूह के माथे,
भले ही वहाँ शून्य हो —
अंधकार, छल, और भ्रम से भरा हुआ।
लाज अब नयन झुका नहीं पाती,
क्योंकि उसे भी सीखना पड़ा है
कैसे चमकना है कृत्रिम रोशनी में।
शील अब परिभाषा नहीं, अभिनय है,
और विनय — भाषण का अलंकार।
जो मृत्यु की देह पर
जीवन का झंडा गाड़ देता है,
वही युग का उद्धारक कहा जाता है।
वह बताता है —
“देखो, यह रक्त नहीं, अमृत है,”
और तालियों के बीच
सत्य के शव को ढँक देता है।
धरती पर बैठी जनता
आकाश की ओर देखती है,
जहाँ मंच सजा है,
रोशनी में लिपटा हुआ —
वहाँ से गिरते हैं शब्दों के पुष्प,
जो मिट्टी से छूते ही राख बन जाते हैं।
ऊँचाई अब दूरी है —
जो जितना दूर है मनुष्य से,
उतना ही बड़ा है इस समय में।
क़रीब आने की चाह
अब लघुता कहलाती है।
पर मंच के पार,
एक शांत कोना है —
जहाँ मिट्टी में साँस लेता बीज
अभी भी समझता है दिशा का अर्थ —
चलने में नहीं, ठहरने में।
लाज वहाँ अब भी जीवित है,
मौन में जलता दीपक बनकर,
और आशा —
वह नहीं जो मंच से दी जाती है,
बल्कि जो धरती से उगती है,
धीरे, पर स्थायी।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
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