पराक्रम लहू में था कभी
✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
दलदल में धँसे दलों को,
वज्र-निनाद से चेताएँ,
झूठे मुखौटों की ज्वाला,
सत्य-शराणि से झुलसाएँ।
दीप जले तो ध्वज धर्म का,
राग-द्वेष से ऊपर हो मान,
तेज वही जो राष्ट्रार्थ जले,
हित-बलिदानें हिंदुस्तान।
राम यदि रक्षक कहलाएँ,
थी रघुवंश की वह मर्यादा।
कपट-सिंहासन तोड़ फेंके,
दे विघ्न-विनाश का प्रसादा।
धर्म न झुकता वाणी से,
न प्रार्थनाओं के वजन पर;
धर्म प्रकटता वीरत्व से,
रणभूमि के पावन क्षण पर।
भारत का गौरव फूलेगा,
जब चेतना जागे जन-जन,
नहीं दलों से देश चलेगा,
जब तक न चाहे हर मन।
राजनीति के दंभ-खलों से,
अब संघर्ष खुला हो जाए,
त्याग की इस भूमि पर,
नया शौर्य-नक्षत्र उग जाए।
विश्वगुरु की महिमा कहती,
राष्ट्र वही जो धर्मधुरा ढोए,
नहीं जो सत्ता लोभों में,
सद्मार्ग अपना स्वयं भुलाए।
कीर्ति जो न्याय-शक्ति से,
अन्यायों पर वज्र पटक दे,
अमर वही योद्धा होगा,
जो अधर्म की जड़ हिला दे।
उठे जवानों का उर-शौर्य,
फूटे प्रखर प्राणों का मान;
गरजो ऐसा कि दहल जाए,
जयतु भारत-धर्मस्थान।
कुल-भूमि की यह पुकार है,
अब एक सूत्र से बंधो सभी,
विश्व-विधान में लिखता है,
पराक्रम लहू में था कभी ।
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