बदलते परिवेश में नारी
अरुण दिव्यांशकौन कहता है थकी हारी ,
कौन कहता है है लाचारी ।
नारी तो है स्वयं ही शक्ति ,
बदलते परिवेश में नारी ।।
नारी ही है भिलनी शबरी ,
नारी ही है सती सावित्री ।
नारी ही रानी लक्ष्मीबाई ,
नारी दुर्गा लक्ष्मी गायत्री ।।
नारी सदा प्रबल रही है ,
नारी नहीं कभी कमजोर ।
नारी बिन है यह हीन नर ,
नारी बिन कहाॅं नर भोर ।।
चल रही नारी सलवार में ,
कहाॅं पहनती वह साड़ी ।
अलग हुआ है रहन सहन ,
बदलते परिवेश में नारी ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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