"शांत चित्त की यात्रा: आत्म-विवेचना"
पंकज शर्मा
मानव जीवन की यह कैसी विडम्बना है कि हम अपनी दृष्टि को सदा बाह्य जगत की ओर उन्मुख रखते हैं, जहाँ केवल दूसरों के दोष और कमियाँ ही हमें दिखाई देती हैं। यह प्रवृत्ति अहंकार की उपज है, जो निरंतर पर-आलोचना के विष से चित्त को अशांत रखती है। चिर-शांति का पथ इस मिथ्याभिमान के शमन से प्रशस्त होता है। जिस क्षण मन बाह्य मुखी न रहकर अंतर्मुखी होता है, उसी क्षण वह आत्म-विवेचना के उस पवित्र सोपान पर आरूढ़ हो जाता है, जहाँ उसे अपने ही कर्मों का निष्पक्ष अवलोकन प्राप्त होता है।
यह आत्म-निरीक्षण ही वह कुंजी है जो शाश्वत सुख के द्वार खोलती है। जब मनुष्य अपनी त्रुटियों को उसी निर्मलता से स्वीकारने लगता है, जिस निर्मलता से वह दूसरों की आलोचना करता था, तब हृदय में करुणा और समता का भाव जागृत होता है। यह जागरण ही वैमनस्य और क्लेश का स्थायी विलोप कर सकता है। अतः, स्वयं को देखने का साहस कीजिए; इसी में जीवन का परम कल्याण निहित है।
. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा
(कमल सनातनी)
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