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"स्मृति के तट पर अस्तित्व"

"स्मृति के तट पर अस्तित्व"

पंकज शर्मा
ढूँढ रही हूँ पदचिन्ह उनके पगों के—
अभी-अभी तो वे गुज़रे थे यहीं से;
पर समुद्र ने उनका अंश
अपने भीतर यूँ समाहित कर लिया
जैसे अस्तित्व, रूप को मिटाकर
स्वरूप में परिणत कर देता है।


रेत पर बची हल्की-सी अनुभूति
किसी व्यक्ति की नहीं,
उस चेतना की प्रतीति है
जो हर आगंतुक के माध्यम से
स्वयं को पुनः पहचानती है—
जैसे आत्मा, आत्मा को छू लेती है।


जब मेरी उँगलियाँ जल को स्पर्श करती हैं,
तो प्रतीत होता है
कि स्पर्श वस्तुतः बाहर नहीं होता—
वह भीतर के शांत केन्द्र
पर लहर बनकर उतरता है।
जल, केवल तत्व नहीं,
अस्तित्व की स्मृति है।


लहरें पूछती हैं—
“किसे खोज रही हो?
उसको जिसे समय छूकर ले गया,
या खुद को,
जो समय से परे है?”
उनका प्रश्न
मेरे भीतर गूढ़ सत्य का द्वार खोल देता है।


उनके कदमों की धुँधली रेखाएँ
अब प्रतीक की तरह दिखती हैं—
यह संकेत कि जो आता है,
वह चला भी जाता है;
पर जो सच्चा होता है,
वह न आने में है, न जाने में—
वह बस ‘है’।


क्षितिज पर पिघलती रोशनी बताती है
कि हर सूर्यास्त
एक मौन उपदेश है—
रूप बदल जाता है,
पर प्रकाश कहीं नहीं जाता।
उसी प्रकार व्यक्ति बदलते हैं,
पर उपस्थितियाँ नहीं।


मैंने समुद्र से पूछा,
“क्या वे लौटेंगे भी?”
समुद्र ने कहा—
“जिसे तुम लौटने की प्रतीक्षा करती हो,
वह स्थान नहीं बदलता—
वह तुम्हारे भीतर ही सदा संपूर्ण रहता है।”


और मैं पुनः झुकी,
जल को छूने, उसे सुनने,
क्योंकि मैंने समझ लिया—
अनुपस्थिति कोई रिक्तता नहीं,
वह उपस्थिति का सूक्ष्मतम रूप है;
जहाँ मिलन व्यक्ति से नहीं,
स्वयं की अनंत सत्ता से होता है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित ✍️ "कमल की कलम से"✍️
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