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बेटी की पीड़ा

बेटी की पीड़ा

✍ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
चली थी पिता की जान बचाने,
अपने जीवन की आहुति दे कर
पर क्या मिला?
आंख में आंसु और तिरस्कार !
दर्द भरी खामोशी का पुरस्कार।
ममता की छाया कहाँ गई?
पिता की आँखों में
वो प्रेम कहाँ गया?
जब किडनी के लिए
सिर्फ बेटी नजर आई थी,
क्या वह भी स्वार्थ था?
पर बेटी खुश थी,
अपने भगवान को
किडनी अर्पित कर,
राजनीति की आंधी में
बह गई मासूम हँसी,
और बेटी की उम्मीदें
टूट कर बिखर गईं।
जिसने जीवन समर्पित किया
परिवार के लिए,
उसी के साथ खेला गया
जैसे कोई खेल।
बल, सत्ता और लालच के नाम पर,
बेटी की गरिमा कुचली गई,
उसका सम्मान मिटाया गया।
रोहिणी की पीड़ा,
ऐश्वर्य की पीड़ा,
हर बेटी की आवाज़
अब गूँजती है।
कब जागेंगे हम
इस अन्याय से?
कब समझेंगे,
बेटियाँ हैं लक्ष्मी,
घर और समाज की धरोहर,
ना कि किसी की सत्ता का शिकार।
आओ हम सब मिलकर,
उनकी गरिमा लौटाएँ,
उनके आँसुओं को सुखाएँ,
और दुनिया को
फिर से बना दें
ममता, सम्मान और न्याय की जगह।


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