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"दीवारों पर श्वासों के निशान"

"दीवारों पर श्वासों के निशान"

पंकज शर्मा
कभी-कभी स्मृतियाँ लौट आती हैं
जैसे पुराने मकान की नमी,
जिसे कोई धूप नहीं सुखा पाती —
वे कोनों में सिमटकर
धीरे-धीरे उगाती हैं काई
मन के भीतर की ईंटों पर।


हर विचार की दरार से झाँकती
एक पुरानी आवाज़,
जिसे हमने वर्षों पहले
समय के भीतर दफना दिया था;
पर वह अब भी
हवा की नोक पर सिहरती रहती है।


इस कमरे में कोई खिड़की नहीं,
फिर भी रोशनी आती है —
स्मृतियों की जली हुई बातियों से,
जो बुझने से पहले
थोड़ी-सी गर्मी छोड़ जाती हैं
ठंडी हो चुकी आत्मा पर।


रूह की दीवारें
इनके पैरों के निशान पहचानती हैं;
वे हर रात लौटती हैं
अधूरे स्पर्शों, अधकहे वाक्यों की तरह,
और किसी अनसुनी कविता में
बदल जाती हैं।


देह, एक खाली घर की तरह,
जहाँ समय की झाड़ियाँ उग आई हैं —
यहाँ चलती हैं वे बातें
जो कभी कही नहीं गईं,
और हर कदम पर गूँज उठता है
एक अदृश्य अतीत का संगीत।


कभी कोई स्मृति
पानी बनकर बह निकलती है,
कभी धूल बन उड़ जाती है,
पर उसकी गंध —
अब भी बनी रहती है
हृदय की भीतरी तहों में।


शायद यही जीवन का रहस्य है —
जो गया, वह जाता नहीं;
जो रुक गया, वह जीता है
अपने मौन के भीतर,
और उसी से जन्म लेती है
कविता की साँस।


इस बन्द कमरे में
हर दीवार बोलती है,
हर छाया कुछ कह जाती है —
और मैं,
सिर्फ़ सुनता हूँ
अपनी ही गूँज में
स्मृतियों का स्वर।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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