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लोकतंत्र की लाश

लोकतंत्र की लाश

(32 साल पुरानी डायरी से)
✍️ *डॉ. रवि शंकर मिश्र “राकेश”*
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क्या जिंदा है लोकतंत्र या उसकी बस लाश तैयार?


कफन में लिपटा संविधान,
राजनीति अब गंदी हुई —
मुस्लिम तुष्टिकरण में
सांसें कुर्सी से चिपकी हुई।
वोटों का मेला,
झूठ का शृंगार,
सजा है फिर
लोकतंत्र का व्यापार।
सवाल उठता हर बार —
क्या जिंदा है लोकतंत्र या उसकी बस लाश तैयार?


गली-गली पोस्टर बोले,
“हम ही जनता के रखवाले”,
पर हर भाषण में बिकते वादे,
हर झंडे के नीचे सौदे वाले।
भ्रष्टाचार की बोली ऊँची,
सत्य पड़ा सड़क के पार —
कौन कहे ये शासन है या
लोकतंत्र की सत्कार?
क्या जिंदा है लोकतंत्र या उसकी बस लाश तैयार?


वोटर लाइन में खड़ा,
हाथ में उम्मीद का फूल लिए,
जिसे चुना, वही बना कसाई
जनता की पीठ में छुरा लिए।
दलदल में फंसी नीतियाँ,
भूख से जूझता हर परिवार —
फिर भी हम चुप हैं,
क्या यही लोकतंत्र का त्यौहार?
क्या जिंदा है लोकतंत्र या उसकी बस लाश तैयार?


मीडिया की माइकें चमकती,
सत्य पर पर्दा पड़ जाता,
सवाल जो असली हों अगर —
एंकर हँसकर टाल जाता।
चमकती स्क्रीन, बुझता विवेक,
अखबारों पर सत्ता का प्यार
कौन बोले? कौन पुकारे?
मर रही लोकतंत्र बारंबार।
क्या जिंदा है लोकतंत्र या उसकी बस लाश तैयार?


अदालतें थकी, कलमें बिक गईं,
सड़कों पर न्याय लाचार,
पुलिस की वर्दी में डर झलकता,
ईमान हुआ बीमार।
भ्रष्टाचार के मंदिर में
आरती गाती सरकार —
ओ मेरे देश! तेरे सीने पर
सजी है लोकतंत्र की लाश बेशुमार।
क्या जिंदा है लोकतंत्र या उसकी बस लाश तैयार?


कभी जो आवाज़ जनता थी,
अब वही बस एक भीड़ हुई,
कभी जो जज़्बा क्रांति था,
अब जातीयता पर सीमित हुई।
तिरंगे की छाया में
छिपा भय, भूख और व्यवहार
यही है भारत,जहाँ चल रही है
संविधान की शवयात्रा लगातार।
क्या जिंदा है लोकतंत्र या उसकी बस लाश तैयार?
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