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वैदिक शब्दों से ही रखे गए हैं नाम, पद व अभिधान के लौकिक नाम

वैदिक शब्दों से ही रखे गए हैं नाम, पद व अभिधान के लौकिक नाम

-अशोक “प्रवृद्ध’

पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार वेदों में मानवीय इतिहास है। लेकिन वेदों के प्रकांड विद्वान स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस भ्रांति को दूर करते हुए वेद के प्रमाण से ही सिद्ध किया कि वेद का मुख्य निहितार्थ परमेश्वर है, और वेद में किसी प्रकार का मानवीय इतिहास नहीं है। वर्तमान में भी शिव, ब्रह्मा, सरस्वती आदि पौराणिक देवी- देवताओं की कल्पना वेद के कुछ मंत्रों के भ्रांतिपूर्ण अर्थों के द्वारा की जाती है। यह सत्य है कि मनुष्यों, नदियों, पुरियों आदि के लौकिक नाम भी वेदों से ही लिए गए हैं। रामायण व महाभारत के कुछ पात्रों के नाम भी वेदों में पाए जाते हैं, जिनके यौगिक अर्थ जानकर पात्रों के विषय में कौतुहल हो जाता है और उनसे संबंधित कथाएं, प्रसंग रोचक बन जाते हैं। जिसके कारण लोग उनके वास्तविक अर्थ को जानने के लिए व्यग्र हो उठते हैं।

वेद संसार के प्राचीनतम ईश्वरीय ग्रंथ हैं। इसमें संसार के समस्त विद्याओं का मूल विद्यमान हैं। विश्व के ज्ञान भंडार में वेदों के इस वर्चस्व के कारण ही मनु महाराज ने मनुस्मृति में घोषणा करते हुए कहा है-
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ।।

-मनुस्मृति 1/ 21
अर्थात- वेदों और वेद के शब्दों से ही मनुष्य सृष्टि के प्रारंभ से सारे नाम, क्रियाएं और व्यवस्थाएं सम्यक्तया अलग-अलग जानी गईं ।

इससे यह सिद्ध होता है कि वेद और संस्कृत से प्रभावित सभी संस्कृतियों में वेद के शब्दों के आधार पर ही वस्तुओं और प्राणियों के लौकिक नाम रखे गए। फिर मनुष्यों के नाम भी वेद पर आधारित होने में कुछ भी आश्चर्य नहीं है। रामायण में भी वेदों में आये अनेक शब्द नाम, पद व विभिन्न अभिधान के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। रामायण के मुख्य पात्र राम वर्तमान में भगवान गिने जाते हैं। ऋग्वेद 10/3/30 में राम शब्द का उल्लेख है- सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निवितिष्ठन् रुषद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्।

- ऋग्वेद 10/3/30

सायण ने इस मंत्र में आये राम का अर्थ कृष्णवर्ण वाला अंधकार किया है। वैसे राम शब्द की निष्पत्ति रमु क्रीडायाम् धातु से कर्ता में घञ् प्रत्यय लगा कर की गई है । इसलिए इसका अर्थ तम प्रकरणानुसार ही मानना पड़ेगा, क्योंकि मंत्र में अर्थ हैं -उगता हुआ सूर्य रात्रि के तम अर्थात राम को दबा देता है। विद्वानों के अनुसार संभव है कि रात्रि में अन्य प्रकार की क्रीडाएं की जाती हों -रमतेऽस्मिन्निति रामः। उणादिकोष में रामठम् 1/101 की महर्षि दयानन्द द्वारा की गई व्याख्या से भी इसकी पुष्टि होती है। उपर्युक्त धातु से ही ज्वलितिकसन्तेभ्यो णः। -अष्टाध्यायी 3/1/140 के इस सूत्र से ण प्रत्यय कर्म में भी कहा गया है। घञ् और ण- इन दोनों से राम का अर्थ बनता है- जो क्रीडा करे, प्रसन्न हो, अथवा जिससे क्रीडा की जाए, आनन्द मिले। जिससे आनन्द मिले -इस अर्थ से राम का सुंदर अर्थ भी बनता है। इस प्रकार प्रभु राम जी स्वयं प्रसन्न रहने से, अतीव नयनाभि राम होने से और अपने माता-पिता, प्रजा, आदि को सन्तोष देने वाले होने से राम कहलाए गए।



रामायण में सीता शब्द भी अनेकशः प्रयुक्त हुआ है। सीता पद का उल्लेख वेद में राम से कुछ अधिक ही प्राप्त होता है। ऋग्वेद 4/57/6 में कहा गया है-

अर्वाची सुभगे भव सीते … ।।

इसका भाष्य करते हुए महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती कहते हैं-

हलादिकर्षणावयवायोर्निर्मिता।- हल आदि के खींचने वाले लोहे के अवयव से बनाई गई सीता अर्थात हल से कुरेदी गई लकीर।

स्वामी दयानन्द के इस अर्थ से सब परिचित हैं। सीता के नामकरण के संबंध में यह कथा प्रचलित है कि राजा जनक के द्वारा पुत्रेष्टि की तैयारी के लिए यज्ञक्षेत्र को स्वच्छ करने के लिए हल चलाते समय अकस्मात हल से बने गड्ढे में माता सीता के दर्शन हुए। शतपथ ब्राह्मण का यह वचन भी इस अर्थ का पुष्टि करता है –

बीजाय वा एषा योनिष्क्रियते यत् सीता।

-शतपथ ब्राह्मण 7/2/2/5

अर्थात- बीज के लिए किया गया गड्ढा सीता कहलाता है।

ऋग्वेद 4/57/7 में भी सीता पद का उल्लेख है-
इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु …।।

इस प्रकार भूमिकर्षिकां का अर्थ भूमि जुताने वाली वस्तु अर्थात फाल ही सिद्ध होता है। यजुर्वेद 12/70 में कहा है-
घृतेन सीता मधुना समज्यताम्…।।

सायन्ति क्षेत्रस्थलोष्ठान् क्षयन्ति यया सा काष्ठपट्टिका।

अर्थात- जिस लकड़ी की पट्टी या फाल से खेत में स्थित ढेलों को तोड़ा जाता है, वह।

उणादिकोष 2/90 के अनुसार षो अन्तकर्मणि धातु से औणादिक क्त प्रत्यय और टाप लगकर सीता की निष्पत्ति हुई है। स्पष्ट है कि भूमि को बीजारोपण के लिए तैयार करने में अंतिम सोपान होने के कारण जोतने अथवा फाल अथवा जुती हुई लकीर के अर्थ में इसका प्रयोग होता है। उणादिकोषः 2/90 में महर्षि दयानन्द व्याख्या करते हुए कहते हैं- स्यति कर्मसमाप्तिं करोतीति सीता क्षेत्रे हलेन कृता रेखा स्त्रीविशेषो वा। अर्थात कर्म की समाप्ति करता है, इस कारण सीता से अभिलक्षित अथवा खेत में हल से की गई रेखा अथवा स्त्रीविशेष का नाम से भी यही अर्थ ध्वनित होता है ।

इन मंत्रों में कृषि में भूमि को जोतने से अच्छी फसल प्राप्त करने के साथ-साथ स्त्रियों को विद्यादि से भूषित करने पर समाज की उन्नति में सहभागी बताया गया है। इस प्रकार सीता कृषि और स्त्रियों के लिए विद्यादि, दोनों प्रकार से मनुष्योन्नति के लिए अत्यंत आवश्यक है। शतपथ ब्राह्मण तो प्राणों का ही अपर नाम सीता कहता है- प्राणा वै सीताः ।।

-शतपथ ब्राह्मण 7/2/३/3

अर्थात- प्राणों का ही अपर नाम सीता है।

अवश्य ही सीता अन्न उगाने में महत्त्वपूर्ण है। और अन्न से प्राणरक्षा होती है। इसलिए शतपथ ब्राह्मण में अपनी विशिष्ट विवक्षा पद्धति के अनुसार सीता को ही प्राण कहा गया है।

रामायण में भरत शब्द भी आया है। उणादिकोष 3/110 के अनुसार भरत शब्द औणादिक अतच् प्रत्यय लगाकर डुभृञ् धारणपोषणयोः से निष्पन्न हुआ है। इसी के अनुसार महर्षि दयानन्द ने वेदमंत्रों में अर्थ भी किए हैं ।
ऋग्वेद 6/16/4 के अनुसार भरत धर्ता पोषकः (सज्जनः) हैं- त्वामीळे अध द्विता भरतो वाजिभिः शुनम्…। ऋग्वेद 1/96/3 के अनुसार वह धारकम् अर्थात धारण व पुष्टि करने वाला (परमात्मा) है- तमीळत प्रथमं … ऊर्जः पुत्रं भरतं …। यजुर्वेद 12/34 में वे पालितव्यस्य राज्यस्य अर्थात सेवने योग्य राज्य। प्रप्रायमग्निर्भरतस्य शृण्वे …। यहां महर्षि दयानन्द ने भरत को णिजन्त लेकर उसे राज्य बताया है।

वेदों व ब्राह्मणादि ग्रंथों में में इससे संबंधित अनेक उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। निघण्टु 3/18 में ऋत्विजों के अर्थ में- भरताः ऋत्विङ्नाम।- कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण 6/8/1/14 के अनुसार प्रजापति (परमात्मा) ही भरत है, क्योंकि वह इन सब (ब्रह्माण्ड में सब भूत व जन्तुओं) का भरण-पोषण करता है-
प्रजापतिर्वै भरतः स हीदं सर्वं बिभर्ति।



कौषीतकी ब्राह्मण 3/2 में कहा गया है कि अग्नि ही भरत है क्योंकि वह देवों (वायु आदि भूतों) के लिए हवि धारण करती है -
अग्निर्वै भरतः स वै देवेभ्यो हव्यं भरति।

ऐतरेय ब्राह्मण 2/24 के अनुसार प्राण भरत है, क्योंकि वे जीव को शरीर में धारण करते हैं-
प्राणो भरतः ॥ऐतरेयब्राह्मणम्। निरुक्त 8/14 के अनुसार भरत आदित्य (सूर्य) है, क्योंकि वह जीवों को धारण व पोषित करता है- भरत आदित्यः। भरत आदित्य (सूर्य) है, क्योंकि वह जीवों को धारण व पोषित करता है। तैत्तिरीयसंहिता 1/8/10/2 के अनुसार निश्चय से भरत राजा है, क्योंकि वह प्रजा का धारण-पोषण करता है- एष वो भरतो राजा। उणादिकोष 1/110 में भृमृदृशि की व्याख्या करते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं- भरति पुष्णातीति भरतः राजभेदो नटो रामानुजो वा।

अर्थात- पोषण करने वाले को भरत कहा जाता है। राजविशेष, नट और राम के अनुज के लिए भी यह प्रयुक्त होता है।

इस प्रकार भरत शब्द परमात्मा, राजा, प्रजा, राज्य, सेनापति, सज्जन, विद्वान्, अग्नि, आदित्य, आदि, किसी भी धारक या पोषक या धारणीय, पोषणीय वस्तु के अर्थ में लिया गया है। राजा के लिए यह अत्यन्त सरल, सुंदर व अर्थपूर्ण नाम है। वेदों में भारत शब्द धर्ता अथवा भारती अर्थात वाणी का वेत्ता, धर्ता अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। महाभारत में चक्रवर्ती राजा भरत की सन्तति होने के कारण कौरवों, पाण्डवों, आदि, के लिए और उनके राष्ट्र के लिए इस पद का प्रयोग किया गया है।

ऋग्वेद 1/126/4 में दशरथ शब्द भी आया है-

चत्वारिंशद्दशरथस्य शोणाः … ।

दश रथाः यस्य सेनेशस्य- दश रथों से युक्त सेनापति -दशों दिशाओं में रथवाला (चक्रवर्ती राजा वा सेनापति)। इस प्रकार दशरथ भी राजा के लिए बहुत ही उपयुक्त अभिधान है।

वेद में लक्ष्मण शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है, लेकिन उणादिकोष में पाणिनि ने इसकी निष्पत्ति दी है- लक्षेरट् मुट् च, जिसकी व्याख्या में महर्षि लिखते हैं – लक्ष्मणं चिह्नं नाम वा रामभ्राता लक्ष्मणो वा अर्थात लक्ष्मण चिह्न अथवा नाम के अर्थ में है। राम के भाई का नाम भी है।


कौशल्या शब्द भी वेदों में प्राप्य नही है। कोशल राज्य से होने के कारण कोशलदेशे भवा छ्य। दशरथ की बड़ी रानी का यह अपर नाम था। कोशल राज्य के अर्थ में कुशल शब्द से निष्पन्न हुआ है। उणादिकोष 1/106 में कहा गया है-वृषादिभ्यश्चित्। इसकी व्याख्या करते हुए महर्षि कहते हैं- कोशति श्लिष्यति कोशति व्यवहर्तुं जानातीति वा कुशलः निपुणः कुशलं क्षेममिति वा। बाहुलकाद्गुणे कोशलः इति देशभेदो वा।

अर्थात- (धनादि से) जुड़ने अथवा सम्यक् व्यवहार जानने वाले निपुण व्यक्ति को, कुशलता को अथवा रक्षा को कुशल कहा जाता है। और कोशल देश विशेष का नाम है। कुशल व्यक्तियों अथवा धन-धान्य से सम्पन्न सुरक्षित राष्ट्र को इंगित करने के लिए इस नाम का प्रयोग हुआ है।


इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि भारत सहित वेद व संस्कृत से प्रभावित कई संस्कृतियों में वेद संहिताओं से ही नाम रखने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। वेदों के अध्ययन- अध्यापन की वृहत परंपरा होने के कारण वैदिक शब्द, पद व अभिधान से परिचित जन उन शब्दों का अनुकरण कर नाम,पद अभिधान रखते थे, जो बहुत ही अर्थपूर्ण और उपयुक्त होता था। प्राचीन काल की भांति आज भी उनका अनुकरण कर नाम तो रखा जाता है, लेकिन उन नामों का व्यक्तियों से संबंध आवश्यक नहीं होता। प्राचीन भारत में शब्दों के अर्थ समझकर ही व्यक्ति के लिए उपयुक्त नाम रखा जाता था। इसी कारण प्राचीन नामों में अनेक रोचक रहस्य छिपे होते हैं।


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