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जीते जी जलाते हो...

जीते जी जलाते हो...

डॉ राकेश कुमार आर्य
खामोशियां भी खामोशियां नहीं होतीं
उनमें भी छुपा एक पैगाम होता है।
उन्हें हर कोई नहीं समझता, समझता है
वही जो दिल के पास होता है।।
मैं नहीं बोलता - ' यह तुम्हारा शिकवा है',
हां, मैं नहीं बोलता,
मेरी खामोशियां बोलती हैं।
मुझसे ज्यादा
मेरे दिल के राज खोलती हैं।।
तुम सुनना चाहते हो, मैं सुनाना नहीं चाहता।
मैं उन्हें उपहास का पात्र बनाना नहीं चाहता।।
पर याद रखना
एक दिन मेरी खामोशियों की
भी नीलामी बोली जाएगी।
उसमें खरीदारों के द्वारा बोली लगाई जाएगी।
कब ?
जब मेरा शरीर चिता में धू- धू कर जल रहा होगा,
"खामोश रहता था" हर कोई सवाल कर रहा होगा।
तब तुम मेरी चिता के लाल अंगारों से
मेरी खामोशियों को नीलाम मत होने देना।
मेरी आत्मा की शान्ति के लिए तुम ही छुड़ा लेना।
क्योंकि तुम मेरे अपने हो -
इन खामोशियों को अख्तियार कराने में
तुम्हारा भी हिस्सा है।
सजाना इनको करीने से ,इनका उपहास मत करना ,
समझ लेना उपहास का झूठा किस्सा है।।
मुझे आने देना इनसे बात करने के लिए,
दरवाजा मत लगाना मुझे रोकने के लिए।
जब मैं इनसे बतियाऊं
तब सुन लेना मैं खामोश क्यों था।
सुनो -
जीते जी जलाते हो, मरे पर भी जलाओगे,
मेरी वफ़ा का इनाम और क्या दिलाओगे ?
खून ही खून को जलाए - यह काम तेरा है,
मैं समझ गया हूं ,जलना - कर्म लेख मेरा है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
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