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आरोग्य, समृद्धि और अमरत्व का पर्व: भगवान धन्वंतरि और धनतेरस

आरोग्य, समृद्धि और अमरत्व का पर्व: भगवान धन्वंतरि और धनतेरस

सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय संस्कृति में त्योहार केवल उत्सव नहीं होते, बल्कि वे गहरे आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और सामाजिक संदेशों से भरे होते हैं। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाने वाला 'धनतेरस' या 'धन्वंतरि जयंती' भी एक ऐसा ही पर्व है, जो स्वास्थ्य, समृद्धि और दीर्घायु के त्रिवेणी संगम को दर्शाता है। यह पर्व दीपोत्सव की शुरुआत का प्रतीक है, जहाँ अंधकार पर प्रकाश और अस्वस्थता पर आरोग्य की विजय का उद्घोष होता है। पुराणों एवं सनातन धर्म की आयुर्वेद संस्कृति संहिताओं में भगवान धन्वंतरि को 'देवताओं का चिकित्सक' और 'आयुर्वेद का रचयिता' कहा गया है। वे भगवान विष्णु के अंशावतार हैं, जिनका प्राकट्य ही सृष्टि को रोगमुक्त करने के लिए हुआ था। शास्त्रों के अनुसार, प्रत्येक देवता किसी न किसी शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, और धन्वंतरि जी चिकित्सा जगत में आरोग्यदाता के रूप में पूजनीय हैं।
भगवान धन्वंतरि के प्राकट्य की सबसे महत्वपूर्ण कथा समुद्र मंथन से जुड़ी है। जब देवता और दानव मिलकर अमरता के लिए क्षीर सागर का मंथन कर रहे थे, तब एक-एक करके चौदह रत्न निकले। मंथन के अंतिम चरण में, एक दिव्य पुरुष अपने चार हाथों में अमृत से भरा कलश, औषधियाँ, शंख और चक्र धारण किए हुए प्रकट हुए। यही दिव्य पुरुष भगवान धन्वंतरि थे। चार भुजाएँ और उनका प्रतीक: उनकी चार भुजाओं में—चक्र और शंख उनकी दैवीयता और विष्णु के अंश होने का प्रतीक हैं, जबकि औषधियाँ और अमृत कलश उन्हें 'आरोग्य का देवता' सिद्ध करते हैं। कलश में निहित अमृत न केवल देवताओं को अमरता प्रदान करता था, बल्कि मानव जाति को रोगों से मुक्ति और दीर्घायु का संदेश भी देता है। भगवान धन्वंतरि के प्राकट्य के साथ ही आयुर्वेद का ज्ञान भी प्रकट हुआ। उन्हें 'आयुर्वेद का प्रणेता' कहा जाता है, जिनसे अनेक औषधियाँ प्राप्त हुईं। उनका अवतरण ही 'स्वास्थ्य ही सच्चा धन है' के शाश्वत सिद्धांत को स्थापित करता है। धन्वंतरि संहित के अनुसार भगवान धन्वंतरि के ज्ञान और कार्यों का विवरण देती है। प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक आचार्य सुश्रुत मुनि ने इसी संहिता की शिक्षा धन्वंतरि जी से प्राप्त की थी।
धन्वंतरि जी का प्राकट्य कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को हुआ था, जिसे धन्वंतरि त्रयोदशी या धनतेरस कहा जाता है। 'धन' शब्द का अर्थ केवल भौतिक संपत्ति नहीं है, बल्कि 'स्वास्थ्य' भी है, जो सबसे बड़ा धन माना जाता है। इसीलिए इस दिन भगवान धन्वंतरि की पूजा का विधान है, ताकि व्यक्ति रोगमुक्त होकर स्वस्थ और सुखी जीवन जी सके। धनतेरस पर केवल स्वास्थ्य के देवता धन्वंतरि ही नहीं, बल्कि धन की देवी लक्ष्मी और धन के देवता कुबेर की भी पूजा की जाती है। यह त्योहार एक संतुलन स्थापित करता है: स्वास्थ्य (धन्वंतरि), समृद्धि (लक्ष्मी), और धन का प्रबंधन (कुबेर) है। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को आवश्यक वस्तुओं, विशेष रूप से सोने, चाँदी, बर्तनों और नए उपकरणों की खरीदारी को अत्यंत शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन की गई खरीदारी से घर में पूरे वर्ष सुख-समृद्धि बनी रहती है और धन में तेरह गुना वृद्धि होती है। इस दिन घर में दीये जलाए जाते हैं, जो अज्ञान और रोग के अंधकार को दूर करने का प्रतीक हैं।
धनतेरस पर लक्ष्मी पूजन का महत्व एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा से जुड़ा है, जो धन और कर्म के संबंध को समझाती है:
भगवान विष्णु ने पृथ्वी लोक पर विचरण करने का निर्णय लिया। उनकी पत्नी देवी लक्ष्मी ने उनके साथ चलने का आग्रह किया। भगवान विष्णु ने एक शर्त रखी: लक्ष्मी जी उनकी किसी भी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करेंगी। लक्ष्मी जी सहमत हो गईं। पृथ्वी पर पहुँचकर, भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को एक स्थान पर रुकने और उनके वापस लौटने तक प्रतीक्षा करने को कहा। स्वयं विष्णु जी दक्षिण दिशा की ओर चले गए। माता लक्ष्मी अपनी स्वाभाविक चंचलता और जिज्ञासा के कारण स्वयं को रोक नहीं पाईं। उन्होंने भगवान विष्णु की आज्ञा भंग करते हुए उनका अनुसरण करना शुरू कर दिया। रास्ते में उन्हें फूलों से लदा एक मनमोहक खेत दिखाई दिया। उसकी सुंदरता से प्रभावित होकर, देवी लक्ष्मी ने एक फूल तोड़कर अपने पास रख लिया। आगे उन्हें गन्ने का खेत मिला, जहाँ उन्होंने एक गन्ना काटकर उसका रस पीया।
जब भगवान विष्णु वापस लौटे और लक्ष्मी जी को उनके मना करने के बावजूद उसी रास्ते पर पाया, तो वे अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने लक्ष्मी जी को अपनी शर्त तोड़ने के दंड स्वरूप 12 वर्षों तक उसी गरीब किसान के खेत में सेवा करने का आदेश दिया, जिससे वे फूल और गन्ना लेकर आई थीं। दुखी होकर, देवी लक्ष्मी उस किसान के घर गईं और वहाँ रहने तथा काम करने की अनुमति माँगी। किसान गरीब था, लेकिन उसने लक्ष्मी जी को आश्रय दे दिया। लक्ष्मी जी के कदम पड़ते ही किसान के जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन आने लगा। उसकी दरिद्रता दूर हो गई और वह बारह वर्षों के भीतर धन-धान्य से परिपूर्ण होकर समृद्ध बन गया।
बारह वर्ष पूरे होने पर, भगवान विष्णु एक सामान्य मनुष्य के रूप में लक्ष्मी जी को लेने आए। किसान और उसकी पत्नी, जो लक्ष्मी जी की कृपा से धनवान हो गए थे, वे उन्हें अपने घर से जाने नहीं देना चाहते थे। वे मानते थे कि लक्ष्मी जी उनके घर के लिए सौभाग्य लेकर आई हैं। जब किसान नहीं माना और लक्ष्मी जी को जाने से मना कर दिया, तब देवी लक्ष्मी ने उसे एक उपाय सुझाया। उन्होंने कहा, "हे किसान! यदि तुम मुझे सदैव अपने पास रखना चाहते हो, तो कल, कार्तिक मास की त्रयोदशी तिथि को, तुम अपने घर की अच्छी तरह सफाई करना, रात में घी का दीपक जलाना और विधिवत मेरी पूजा करना। यदि तुम प्रतिवर्ष तेरस के दिन यह विधान करोगे, तो मैं तुम्हारे घर पर सदैव निवास करूँगी।" किसान ने सहर्ष लक्ष्मी जी के निर्देश का पालन किया। उसने त्रयोदशी की रात को घर में दीये जलाए और लक्ष्मी जी की पूजा की। लक्ष्मी जी की कृपा से वह परिवार सदैव समृद्ध बना रहा। तभी से, कार्तिक त्रयोदशी की रात को लक्ष्मी जी की पूजा करने की परंपरा शुरू हुई, और यह त्योहार धनतेरस के नाम से प्रसिद्ध हुआ।धन्वंतरि जयंती और धनतेरस का पर्व भारतीय दर्शन के उस मूल विचार को पुष्ट करता है कि भौतिक समृद्धि (धन) केवल तभी सार्थक है, जब वह अच्छे स्वास्थ्य (आरोग्य) की नींव पर टिकी हो। धन्वंतरि जी की पूजा हमें रोगों से मुक्ति और दीर्घायु का वरदान प्रदान करती है, जबकि लक्ष्मी-कुबेर की पूजा हमें भौतिक सुख और समृद्धि प्रदान करती है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि जीवन में सच्चा संतुलन स्वास्थ्य और धन दोनों के समन्वय से ही प्राप्त होता है। इस दिन दीये जलाना अंधकार, रोग और दरिद्रता को दूर कर, जीवन में आरोग्य और खुशहाली का प्रकाश फैलाने का आह्वान है।
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