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दीप करोड़ों जले, जलेंगे फिर भी।।

दीप करोड़ों जले, जलेंगे फिर भी।।

डा रामकृष्ण मिश्र 
तिमिर का जंजाल जब विकराल हो जाता
नियति के पर्यंक में भूचाल ‌‌ खो जाता।
मालवेतर वृत्ति सा चंचल उछलता है
आस्था के घर कृपा का स्रोत बो जाता।
कंटकित पथ में चले ,चलेंगे फिर,भी।।

हृदय में मन में ंविचारों में अँधेरा‌ हो
आचरण के ग्रंथ का कोई लुटेरा हो‌।
दमनकारी नीतियों के बीच बैठा भ्रम
सिसकियों को जन्म रेता घोर जिद्दीपन।।
कदम सीधे बढ़े हेैंं, बढेंगे फिर भी।।

आनुवंशिक चेतना के बिंब का दर्शन
दिग्भ्रमित करता नहीं होता नहीं क्रंदन।
प्रलोभन की स्वर्ण जाली से निकल चलना
अरुण रथ के साथ अथ की दृष्टि का मंथन।।
सजग थे हैं और भर सक रहेंगे फिर भी।। 87

डा रामकृष्ण मिश्र 
/गया जी/ बिहार
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