वे नहीं आए
डा रामकृष्ण
चाँद दश चक्कर लगा थक, गया है सोने
अंधेरे की व्यथा का स्वर लगा है खोने।
गुलाबी खुशबू मनाती हारती सी है
चक्रवाकी अचल दृढता विरह मन भाए।।
वे नहीं आए।।
देहरी आँगन मुँडेरे छत विरस गलियाँ
कुनमुनाती शायरी सी स्वप्न की कलियाँ
अनैतिक परिवंचना के गीत का मुखड़ा
गुनगुनाते विहँसते संताप दुहराए।
वे नहीं आए।।
चिढाती रक्ताभ ऊषा मारती ताना
क्या करें अनुभुतियों का खुल गया बाना।
पंख हीन मनोरथी मन बहुत विह्वल हो
पूछता है हवाओं से क्यों नही लाए।।
वे नहीं आए।।
डा रामकृष्ण, गया जी, बिहार
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अंधेरे की व्यथा का स्वर लगा है खोने।
गुलाबी खुशबू मनाती हारती सी है
चक्रवाकी अचल दृढता विरह मन भाए।।
वे नहीं आए।।
देहरी आँगन मुँडेरे छत विरस गलियाँ
कुनमुनाती शायरी सी स्वप्न की कलियाँ
अनैतिक परिवंचना के गीत का मुखड़ा
गुनगुनाते विहँसते संताप दुहराए।
वे नहीं आए।।
चिढाती रक्ताभ ऊषा मारती ताना
क्या करें अनुभुतियों का खुल गया बाना।
पंख हीन मनोरथी मन बहुत विह्वल हो
पूछता है हवाओं से क्यों नही लाए।।
वे नहीं आए।।
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