अंहकार ले डूबा
अंहकार ने डूबो दियादेखो अच्छें अच्छों को।
कुछ भी पास नही रहा
देखो उनके जीवन में।
मान-अभिमान का खेल
जीवन भर चलता है।
कभी नाव नदी में तो
कभी नदी नाव में है।।
बड़ो बड़ो का ढह गया
तुम देखो किले को।
मंजिल से वो भटक गये
अभिमान के कारण जो।
संगठन भी बिखर रहा है
सिर्फ अभिमान के कारण।
पूरा माहौल बदल गया है
एक गलती के कारण।।
महत्वकांक्षाएँ बहुत रखें है
ये अपने अंदर जो।
कैसे पूरी हो पाएंगी
खुद को जरा समझो।
एक गलती ने मिटा दिया
बनी बनाई ख्याति को।
जिसके कारण कट रहे
अब तेरे से अपने जो।।
जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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