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"नायक–खलनायक का द्वंद्व"

"नायक–खलनायक का द्वंद्व"

पंकज शर्मा
इतिहास का न्याय
कभी तत्काल नहीं होता।
वह समय की शिला पर
धीरे-धीरे उभरती हुई
रेखाओं जैसा है,
जहाँ रक्त और आँसू
एक साथ जमे रहते हैं।


किसी युग में
एक विचार "धर्म" कहलाता है,
पर वही विचार
अगले युग की दृष्टि में
"अपराध" ठहर जाता है।
नायक और खलनायक
परिस्थितियों की संतानें हैं—
विजेता यदि वही रहे
तो स्मृति में दीपक जलता है,
पर यदि विजेता बदल जाए
तो वही दीपक धधकता हुआ शूल बन जाता है।


अहिंसा—
क्या वह निर्बलता की छत्रछाया है,
या आत्मबल का सर्वोच्च स्तम्भ?
और हिंसा—
क्या वह केवल राक्षसी प्रवृत्ति है,
या अन्याय के प्रतिकार का अंतिम शस्त्र?
इन प्रश्नों का समाधान
किसी ग्रंथ में नहीं,
बल्कि पीड़ित आत्माओं की
सिसकियों में छिपा है।


राष्ट्र का विखण्डन
किसी एक पुरुष की जिद नहीं,
बल्कि सहस्रों जड़ताओं का
मौन षड्यंत्र था।
किन्तु
जब जनमानस तिलमिला उठता है,
तो वह किसी एक देह को चुनकर
उसमें अपने आक्रोश की
अग्नि प्रवाहित करता है।
और वही अग्नि
इतिहास की धारा मोड़ देती है।


मां भारती—
तेरा चरित्र अभी भी अधूरा है।
तेरी सीमाएँ टूटी हुई माला की तरह
बिखरी पड़ी हैं।
तेरे नायक आज भी
विवादों में खड़े हैं—
कौन "राष्ट्रपिता" है,
कौन "देशद्रोही" है,
और कौन
इतिहास का मौन प्रहरी।


समय साक्षी है—
जहाँ भी अन्याय होगा,
वहाँ कोई न कोई
धनुष उठाएगा।
और जहाँ भी सत्य का बोझ
एकतरफ़ा लाद दिया जाएगा,
वहाँ कोई न कोई
गोली, तलवार, या शब्द बनकर
उस संतुलन को तोड़ेगा।


यही इतिहास का शाश्वत विधान है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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