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अंतिम उजास

अंतिम उजास

पंकज शर्मा
जिंदगी की शाम में
एक और शाम उतर आई —
थकी हुई धूप की तरह,
धीरे-धीरे पिघलती हुई।


हसरतें,
जो कभी दिल की दीवारों पर
रंग भरती थीं उम्मीद के,
अब उतार चुकी हैं अपने चटख चेहरे।
वे अब धुँधले आईने हैं —
जिनमें समय की उँगलियाँ
धूल की लकीरें खींच चुकी हैं।


कभी जो आवाजें
मन के गलियारों में गूंजती थीं,
आज वे प्रतिध्वनियाँ भी नहीं रहीं,
बस हवा में एक नमी है,
जो कहती है —
कितना कुछ कहा नहीं गया।


स्मृतियों के बाग़ में
अब पत्ते नहीं झरते,
बस खामोशी झरती है,
और दूर कहीं
एक पुराना गीत
धीरे-धीरे बुझता जाता है।


शायद यही जीवन है —
उजालों का क्षय,
इच्छाओं का मौन,
और समय के साथ
स्वीकार का श्वास।


अब न कोई ग़म शेष है,
न कोई उत्सव शेष —
बस एक ठहरी हुई शांति है,
जिसमें
हर हार, हर जीत
एक समान हो गई है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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