अव्वल बने ला हमरा भीड़ चाहीं
अव्वल बने ला हमरा भीड़ चाहीं ,गिनावे खातिर ढेरे ढेर सिर चाहीं।
परिणाम देवे के बा हमरा अपने ,
अपने नाम के हमरा हीर चाहीं ।।
विरोधी रोके खातिर तीर चाहीं ,
हमरा आपन पोजीशन मीर चाहीं ।
सर्वोत्तम सम्मान रूपी खीर चाहीं ,
हमेशा रहीं सर्वोत्तम से उत्तम ,
अईसन हमरा तकदीर चाहीं ।।
भले कोई रहे हमरा से रूठके ,
जे हमेशा जीतावत रहो हमरा ,
ओईसने हमरा एगो वीर चाहीं ।।
बुद्धि से आपन काम निकालीं ,
अईसने हमरा मन धीर चाहीं ।
जे हमेशा हमरे के रहो जीतावत ,
अईसने हमरा एगो मंदिर चाहीं ।।
दू गो रोटी साथे घर चीर चाहीं ,
खाए के रोटी पीए के नीर चाहीं ।
खेलत रहीं सब संग हम होली ,
अरुण दिव्यांश के अबीर चाहीं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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