"अद्वैत पथिक"
पंकज शर्माअपने पाँवों से चला
तो जाना—
रास्ते कितने अनंत हैं,
और यह अनंत
मन के भीतर ही पसरा है।
जितना बाहर बढ़ा
उतना भीतर उतरा,
हर कदम जैसे
एक सूत्र खोलता गया
अज्ञेय का।
धूप, छाँव, पवन—
ये सब प्रतीक हैं,
सुख-दुख, हर्ष-विषाद
जैसे अनश्वर तरंगें
महासागर में।
साथी मिले,
साथ छूटे—
पर पगडंडी ने सिखाया
कि यात्री अकेला नहीं,
यात्रा ही उसका सहचर है।
मंज़िल नहीं थी कहीं बाहर,
वह तो झलक रही थी
हर क्षण में,
हर थकान, हर विश्राम में—
स्वयं को पहचानने के रूप में।
जितना खोला
उतना जाना
कि “मैं” और “पथ”
दो नहीं,
एक ही अनुभव की लय हैं।
अकेले चलने का अर्थ—
अपने भीतर के द्वंद्व को
साध लेना,
और देखना
कि मौन ही
सबसे प्रगाढ़ संवाद है।
अब स्पष्ट है—
घर से निकलना
अलगाव नहीं,
एक वापसी है
उस अद्वैत में
जहाँ पथिक और पथ
भेदरहित हो जाते हैं।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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