वाणी का खेल
संजय जैन "बीना"वंश के वंश मिट गये
अभिमान के चलते देखो।
माना नहीं जिंदा में जिन्हें
मरने के बाद गुणगान क्यों।
जिंदगी मिली है उधार में
तो कर्ज चुका के जिओ।
वरना जीते-जी मरते रहोगें
सदा ही अपनों के बीच में।।
मत कर तू घमंड इतना
क्योंकि समय बदल रहा है।
इसलिए समय की धारा को
पहले समझो फिर बहो।
खेल बदलते देर नही लगता
न ही अपनों को बदलते देर।
कल तक जो साथ थे
अब साथ छोड़ रहे।।
खेल कर दिया करनी ने
परिणाम जिसका दिख रहा।
खिल खिलता चेहरा तेरा
अब मुरझाने जो लगा।
मान-अभिमान के कारण
सब कुछ हाथ से जा रहा।
अभी वक्त है तेरे पास
खुद को तू सभंल ले।।
नम्रता विनय धैर्य के कारण
साख बहुत बढ़ती है।
सबके दिलों में बसने का
वाणी ही एक साधन है।
जो शब्दों का ध्यान रखते है
मधुरभाषी मिलनसार कहलाते है।
और अपना पूरा जीवन वो
खुशियों के साथ जीता है।।
जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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