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दिवाली

दिवाली

 जय प्रकाश कुवंर
दिवाली को पंच महोत्सव भी कहा जाता है, जो धनतेरस के दिन से शुरू होकर भाई दूज तक चलता है। इस पंच महोत्सव में हर दिन की अपनी अपनी खास महात्म्य है।
धनतेरस:- यह दिवाली पर्व की शुरुआत का पहला दिन होता है। यह कार्तिक महीने के कृष्ण पक्ष के त्रयोदशी को मनाया जाता है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान इसी दिन माता लक्ष्मी और भगवान धनवंतरि समुद्र से प्रकट हुए थे। भगवान धनवंतरि को विष्णु भगवान का अंशावतार माना जाता है। भगवान धनवंतरि अपने हांथों में अमृत कलश लिए हुए प्रकट हुए थे। अमृत के स्वर्ण कलश को देखकर देवताओं ने इसे अमृत का प्रतीक मान लिया। तभी से धनतेरस के दिन वर्तन और सोना चांदी खरीदने की परंपरा शुरू हुई।
धनतेरस के दिन पारंपरिक रूप से नयी चीजों को खरीदा जाता है, जिससे धन संपदा में तेरह गुना वृद्धि होती है। मान्यताओं के अनुसार इस दिन सोना, चांदी, पीतल एवं तांबे के वर्तन, साबूत धनियाँ, नमक और झाड़ू खरीदने का प्रचलन है।
धनतेरस के दिन भगवान धनवंतरि, माता लक्ष्मी, कुबेर और यमराज की पूजा होती है। धनवंतरि ने संसार में चिकित्सा विज्ञान का प्रचार और प्रसार किया, इसलिए भगवान धनवंतरि को आरोग्य का देवता भी कहा जाता है। इस तरह देखा जाये तो यह धनतेरस का पर्व केवल धन प्राप्ति का पर्व नहीं, बल्कि यह आरोग्य, आयु और समृद्धि की कामना का पर्व है।
धनतेरस का भगवान धनवंतरि और यमराज की कथा से गहरा संबंध है। एक बार यमराज ने अपने दूतों से पूछा कि क्या कभी मनुष्य के प्राण लेते समय उन्हें दया आती है। इस पर एक यमदूत ने बताया कि एक बार ऐसा हुआ कि जब एक नवविवाहिता स्त्री अपने पति की मृत्यु पर अत्यंत करुण विलाप कर रही थी, तब उसका हृदय द्रवित हो गया था। कथानुसार एक दिन हंस नामक राजा शिकार करने गया था और रास्ते में भटक गया। भटकते भटकते वह दूसरे पड़ोसी राज्य में चला गया। वहाँ के राजा हेमा ने राजा का खुब आदर सत्कार किया। संयोगवश राजा हेमा की पत्नी ने उसी दिन एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र जन्म के बाद ज्योतिषियों ने उन्हें बताया कि अगर इस बालक का विवाह होता है ,तो वह विवाह के चार दिन बाद ही मर जाएगा। तब राजा ने अपने बेटे को यमुना तट पर एक गुफा में रखने का फैसला किया, ताकि स्त्रियों की परछाईं भी उस पर न पड़ सके। लेकिन ऐसा हो नहीं सका और संयोगवश राजा हंस की बेटी ही समय होने पर वहाँ चली गई। ब्रह्मचारी के वेश में वहाँ रह रहे राजकुमार को देखकर वह उस पर मोहित हो गई। फिर दोनों ने वहाँ गन्धर्व विवाह कर लिया। विवाह के चार दिन बाद राजकुमार की मृत्यु हो गई। उसका प्राण लेने गये यमदूत ने कहा कि उस समय उस नवविवाहिता स्त्री का करुण विलाप सुनकर हृदय पसीज गया था।
इस घटना को सुनाने के बाद यमदूतों ने यमराज महाराज से पूछा कि क्या इस तरह के अकाल मृत्यु से मुक्ति का कोई उपाय है? यमदूतों के प्रश्न का उत्तर देते हुए यमराज ने बताया कि अकाल मृत्यु से बचने के लिए व्यक्ति को धनतेरस के दिन यम के नाम का पूजन व दीपदान करना चाहिए। जहाँ ये किया जाता है, वहाँ अकाल मृत्यु समाप्त हो जाता है। इसलिए धनतेरस के दिन धनवंतरि, कुबेर, और माता लक्ष्मी के साथ यमराज की भी पूजा अर्चना होती है। जहाँ धनवंतरि आरोग्य के देवता हैं, वहीं यमराज मृत्यु के देवता हैं।
छोटी दिवाली :- छोटी दिवाली धनतेरस के दूसरे दिन मनायी जाती है। यह नर्क चतुर्दशी के नाम से भी प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि कार्तिक मास के कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातः काल तेल लगाकर चिचड़ी की पत्तियाँ जल में डालकर स्नान करने से नर्क से मुक्ति मिलती है। संध्या को दीपदान की प्रथा है, जो यमराज के लिए किया जाता है।
दिवाली :- यह पर्व कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। यह भारतवर्ष के सबसे बड़े और सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। यह पर्व अंधकार पर प्रकाश की विजय को दर्शाता है। कुछ परंपराओं और मान्यताओं के अनुसार यह दिन माता लक्ष्मी का भगवान विष्णु के साथ उनके विवाह के रूप में माना जाता है। इस दिन देवी लक्ष्मी का पूजन और सम्मान किया जाता है। कुछ मान्यताओं के अनुसार रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद जब भगवान राम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे तब उनके आगमन के समय अमावस्या की अंधेरी रात थी। उस समय अयोध्या के लोगों ने अपने प्रिय राजा और रानी के स्वागत में अपने घरों के बाहर और गलियों में दीप प्रज्ज्वलित किये और इस प्रकार दीपोत्सव की परंपरा शुरू हुई। आज कल इस त्योहार को चिन्हित करने के लिए दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं, आतिशबाजी की जाती है और लक्ष्मी पूजन किया जाता है। इस दिन व्यवसायी वर्ग अपने पुराने बही खाता को बंद करते हैं।
अन्नकूट :- यह दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष का पहला दिन होता है। इसे गोवर्धन पूजा के नाम से भी जाना जाता है। भगवान कृष्ण द्वारा अपनी छोटी उंगली से गोवर्धन पर्वत उठाकर अपनी प्रजा को बाढ़ और भयंकर बरसात से बचाने के उपलक्ष्य में, बज्र और बर्षा के देवता इंद्र पर विजय के उत्सव के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। इस पर्व में मानव और प्रकृति का सीधा संबंध परिलक्षित होता है। इसमें गो माता की पूजा की जाती है। घर में जो भी मवेशी गाय बैल होते हैं, उनको नहला धूला कर नया रस्सी आदि बदला जाता है। उनके सिंगो में तेल लगाया जाता है। उन्हें चावल मे गुड़ मिलाकर खिलाया जाता है। इस दिन गाँव देहात में लड़कियां सुबह उठकर गाय के गोबर से गोधन बनाती हैं, जिसमें गोधन भैया, घर, उखल, मूसल आदि अनेक आकृतियाँ बनाती हैं।
भाई दूज :- यह पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष के द्वितीया दिन मनाया जाता है। यह दिवाली के पंच महोत्सव का अंतिम पर्व होता है। इस दिन यमराज और चित्रगुप्त की पूजा होती है। इस दिन बहन अपने भाई को घर बुलाकर मीठा स्वादिष्ट भोजन कराती है और उसके माथे पर लाल चंदन का टिका लगाती हैं। भाई की आरती उतारतीं हैं और कलाई पर कलावा बांधती हैं। इस दिन गाँव देहात में लड़कियां गाय के गोबर से अन्नकूट के दिन बनाया हुआ गोधन कुटाई करती हैं, गोधन के गोबर से बनाये घर में चना अथवा बजरी रख कर उसे उठाकर भाई को खिलाने के लिए सुरक्षित रख लेती हैं। फिर उसे अपने भाइयों को खिलाती हैं, उनकी लम्बी उम्र की कामना करती हैं और उनसे उपहार लेती हैं। और आज के दिन से ही शादी व्याह का लग्न शुरू हो जाता है।
इस प्रकार दिवाली पंच महोत्सव पर्व का भाई दूज मनाने के साथ समापन हो जाता है।
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