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. "दीपशिखाएँ"

 "दीपशिखाएँ"

पंकज शर्मा
दो आत्माएँ थीं —
मोम की बनी, पर स्वप्न से दीप्त।
वे एक-दूसरे के आलिंगन में
धीरे-धीरे पिघल रही थीं,
जैसे समय खुद उनके बीच थम गया हो।


आग उनके भीतर थी,
पर वह दग्ध नहीं करती थी —
वह उजाला देती थी,
एक मौन, गहन, आत्मीय उजाला।


उनकी देहें गलती रहीं,
पर प्रेम बढ़ता गया,
हर बूँद में एक कथा थी —
समर्पण की, विसर्जन की,
और उस अनकहे सुख की
जो केवल खो जाने से मिलता है।


उनकी लौ एक-दूसरे से मिली,
और फिर पहचान खो गई —
ना वह रही, ना वह,
सिर्फ एक थरथराती ज्योति
जो अमरता का गीत गुनगुना रही थी।


वह आलिंगन एक अंत नहीं था,
वह आरंभ था —
एक ऐसी यात्रा का,
जहाँ “मैं” और “तुम” शब्द
मौन की गहराई में डूबकर
“हम” में रूपांतरित हो जाते हैं।


अब वहाँ कोई रूप नहीं,
सिर्फ रोशनी है —
जो प्रेम की राख से जन्मी है,
और जिसमें जलनाएक प्रार्थना बन गया है।

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