श्रीकृष्ण का गोपियों को उत्तर
✍️ डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"*"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""*
हे प्राणप्रिय गोपिकाओं!
तुम्हारे इस सरल-मन भावों को,
निहारता रहता,मैं कैसे कहूं,
अपने हृदय से उतारकर
तुम्हारे चरणों में कैसे धरूं?
मुरली तो बस एक बहाना है,
धुन ! तुम सब का उलहाना है।
मैं तो खुद खो जाता हूं,
जब सब लेती हो मेरा नाम,
राधा की पायल से बंधता हूं,
हृदय में बसता बृज का ग्राम।
तुम कहती हो —
“तेरी मुरली ने जादू किया,”
पर क्या जानो,
मेरे सुर भी तब सजते हैं,
जब तुम सबकी आँखें भर आती हैं,
प्रेम से भरी हर अदाएं,
मेरे हृदय में सज जाती है।
तुम्हारी हँसी, तुम्हारी तकरार,
तुम्हारा गुस्सा, सब मेरे श्रृंगार,
तुमसे दूर रहूं, यह संभव नहीं,
क्योंकि ‘मैं’ तुमसे जुदा नहीं।
बाँसुरी को दोष न दो प्रिय!
उसमें तो बसी है तुम सबकी तान,
तुम्हारी पीर, तुम्हारा प्रेम,
तुम्हारा विरह, तुम्हारी पहचान।
जब निकलती हो तुम यमुना किनारे,
मैं थाम लेता हूं हर पग तुम्हारे,
ना किसी नियम से बंधे हैं हम,
ना समय की रेखा में रुके हैं हम।
प्रेम ही हमारा धर्म है,
श्याम तो सदा ही तुम्हारे संग है।
रास ही मोक्ष का मर्म है आओ!
ना कुछ पूछो,सिर्फ प्रेम में बहो,
मुरली बजे या कभी ना बजे,
मैं तुम्हारा हूं, मेरे हृदय में रहो।
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