क्यों करें अभिमान
न तन अपना न श्वास ही अपनी ,कहाॅं पड़ा अब ज्ञान रे ।
न कुछ अपना न सपना अपना ,
क्यों करें अभिमान रे ।।
ऑंखों में बाॅंध ली काली पट्टी ,
बनाकर झूठी शान रे ।
मन में तेरे प्रति है गाली सबकी ,
तुम जबरन पाते सम्मान रे ।।
हृदय में सबके छिपा पड़ा है ,
तेरे प्रति अपमान रे ।
न जीवन न धड़कन ही अपनी ,
क्यों करें अभिमान रे ।।
यह है मेरा वह भी मेरा ,
मेरा मेरा सब करता है ।
मेरा सब चला गया तब ,
बैठकर आहें भरता है ।।
जानते हो सब कुछ लेकिन ,
क्यों बनता तू नादान रे ।
अपना कुछ नहीं जगत में ,
क्यों करें अभिमान रे ।।
आए तो खाली हाथ लेकिन ,
कर्ज लेकर ही तो जाना है ।
मात भ्रात श्वसा पिता गुरु ,
कर्ज चुका ही कहाॅं पाना है ।।
बैठ सकते नहीं फिर तुम उठकर ,
जब निकलेगा तेरा प्रान रे ।
झूठे है अभिमान यह तेरा ,
क्यों करें अभिमान रे ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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