"अनाहत वृक्ष"
पंकज शर्मान वह पुरुष है, न प्रतिमा—
वह जड़ और चेतना के बीच का संधिस्थल है,
जहाँ मौन बोलता है,
और शब्द, वृक्ष की छाल बनकर जम जाते हैं।
उसकी देह तंतुओं की नदी है,
जो भीतर से बहती हुई बाहर झरती है;
हर तंतु एक श्लोक है,
जो ब्रह्म के गले में अटका रह गया।
वह नहीं देखता, क्योंकि देखना उसके भीतर घटता है—
नेत्रों के पीछे,
जहाँ प्रकाश, अपने स्रोत को पहचान लेता है,
और अंधकार, शरण बन जाता है।
उसके सिंहासन पर वल्लरियाँ नहीं,
समय की लहरें लिपटी हैं,
जो हर क्षण को
जन्म और विसर्जन दोनों बनाती हैं।
कभी वह मनुष्य था—
पर उसने सांसों का भार उतार दिया,
और जड़ में उतरते उतरते
सृष्टि की नाभि तक पहुँच गया।
उसकी निश्चलता में गति का रहस्य है,
जैसे शून्य अपने भीतर
ग्रहों को घुमाता रहे,
पर स्वयं निर्विकार बना रहे।
वह अब न बोलेगा—
क्योंकि वाणी उसी के भीतर लौटी है,
जहाँ नाद अनाहत है,
और ध्वनि, केवल आत्मा की स्पंदन-रेखा।
यह रूप नहीं, प्रतीक है—
मानव का वृक्ष में विलयन,
और वृक्ष का पुनः मनुष्य में उदय,
जहाँ समत्व ही अंतिम प्रार्थना है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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