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"रेत में समय के चेहरे"

"रेत में समय के चेहरे"

पंकज शर्मा
रेत से उभरे ये चेहरे —
स्थिर, निश्चल,
फिर भी कुछ कहते हुए,
मानो मौन ही भाषा बन गया हो।
हवा उन्हें छूकर निकल जाती है,
पर वे नहीं हिलते —
क्योंकि उन्होंने स्थायित्व का भ्रम तोड़ दिया है।


ये चेहरे समय के शिलालेख हैं,
जहाँ स्मृतियाँ जम चुकी हैं
सदियों की परतों में।
हर रेखा में है एक कथा,
हर मोड़ में एक प्रार्थना,
जो कभी कही गई थी —
पर अब केवल प्रतिध्वनि बन रह गई है।


सृजन और क्षय का यह संगम
मानव के अहं का दर्पण है।
वह जो देवता गढ़ता है,
वह भी मिट्टी का ही होता है।
रेत जानती है —
हर ऊँचाई की एक तय गिरावट है,
बस समय को उसका क्षण चाहिए।


कभी किसी कलाकार ने
इनमें साँस फूँकी होगी,
अपने स्वप्नों का आकार दिया होगा।
पर आज —
ये स्वप्न भी वाष्पित हो चुके हैं,
केवल आकार शेष है,
अर्थ नहीं।


क्या ये चेहरे रो रहे हैं?
या शांति की पराकाष्ठा में
सभी भाव विलीन हो चुके हैं?
रेत में कोई आँसू नहीं दिखते,
पर हवा जब उन्हें छूती है,
तो लगता है —
जैसे कोई मौन विलाप अब भी बह रहा हो।


मैं देखता हूँ —
उन आँखों में, जो खुली नहीं,
परंतु सब देख रही हैं।
वे जानती हैं कि
मनुष्य क्षणिक है,
और अमरता एक भ्रांति,
जिसे हम बार-बार गढ़ते हैं —
रेत से।


इन चेहरों के बीच
मुझे अपना चेहरा दिखता है —
धीरे-धीरे मिटता हुआ,
अपनी पहचान खोता हुआ।
मैं भी तो उसी रेत का अंश हूँ,
जिसने इन्हें आकार दिया,
और जो एक दिन मुझे भी समेट लेगी।


सृजन, विनाश, पुनः सृजन —
यही चक्र है, यही जीवन।
रेत के इस मौन संसार में
सब कुछ कहा जा चुका है,
केवल सुनने वाला मन चाहिए।
वहीं कहीं,
हवा की सरसराहट में,
समय फिर अपना चेहरा तराश रहा है।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)

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