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जनता बनाम सत्ता – संवाद

जनता बनाम सत्ता – संवाद

रचना --- 
        ✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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#जनता:
ऐ सत्ता! तू कब तक खेलेगी ये खेल?
वादों की कड़ाही में डाल झूठ का तेल!
तेरे मंच पे सब अभिनय करते हैं,
पर अंत में भूख हमारे हिस्से में पड़ते हैं!
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#सत्ता:
मैं तो आई जनता की सेवा करने को,
बस थोड़ा वक्त चाहिए चेहरा बदलने को!
योजनाएँ, भाषण, घोषणा भी, सबल है,
बस अमल में देरी,जिम्मेदारी जरा डबल है।
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#जनता:
घोषणाओं की रीत नहीं, रीढ़ हीनता है ये,
जनता का हक़ लूटने की नीति है ये।
तूष्टिकरण और  जाति का चोला पहने,
हर बार आग जलाता जिसमें पकौड़ी छने।
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#सत्ता:
अरे जनता, तू भूल जाती है जल्दी 
नोटों के गर्मी में हो जाती थोड़ी गलती!
कुर्सी तो तू ही देती है बार-बार,
तो फिर क्यों करती शोर हर बार?
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#जनता (गरजती हुई):
सुन सत्ता! अब भूल नहीं होगी,
अब लाठी नहीं, वोट ही गोली होगी!
अब जात नहीं, जवाब देखेगा जग,
कुर्सी पर जनता की लगाम है पग-पग!
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#सत्ता (काँपती हुई):
ये कैसा लहर है या कोई तूफ़ान ?
इस बार भी मौका दो, मेरे भगवान।
तेरी आँखों में दिख रहा परिवर्तन,
मेरा सब कुछ है तेरे चरणों में अर्पण।
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#जनता (अंतिम प्रहार):
हाँ सत्ता! ये जन-क्रांति की गर्जना है,
अब मौन नहीं, सिंहनाद की वंदना है!
बहुत भीतरघात किया हमारे विश्वास का,
कोई फायदा नहीं होगा अब इस प्रयास का।
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