मर रहे हो जाति पर
बूझी पड़ी हैं दीपक की बाति ,नहीं नजरें तुम्हारी बाति पर ।
कूट कूट कर जो लूट चुका है ,
किंतु मर रहो तुम जाति पर ।।
जिसने जीवन अंधेरा किया है ,
जीवन पे तेरे जो डेरा लिया है ।
समझ रहे हो जिसे तुम अपना ,
तेरे लिए उसने क्या किया है ।।
जातिवाद में तुम फॅंसे पड़े हो ,
मानवता हेतु खुद कुऑं बने हो ।
कुचल रहे स्वयं जीवन अपने ,
पथ को भूल तुम उल्टे तने हो ।।
जूझ रहा कोई स्वार्थ में अपने ,
कोई राष्ट्रहित में ही जुझ रहा है ।
नेत्र रहते जो बना पड़ा है अंधा ,
तुझे नेत्रहीन नेता सूझ रहा है ।।
नेत्रहीन ही नेत्तृत्व हो जिसका ,
उसके भी ऐसे ही भक्त बने हैं ।
घुन लगे हुए नेता जो बने हों ,
घुन लगे हुए उनके सारे चने हैं ।।
भारत में तुम भी जन्म लिए हो ,
कहलाते हो तुम भारतवासी ।
निकाल लो तुम हृदय से गंदगी ,
उर में बसा लो मथुरा काशी ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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