"छठ : अस्त होते सूर्य का प्रणाम"
पंकज शर्माईश्वर यहाँ प्रत्यक्ष है—
किसी मध्यस्थ की नहीं आवश्यकता,
प्रार्थना और प्राप्ति के बीच
सिर्फ एक आत्मा और एक विश्वास खड़ा है।
यह वह व्रत है
जहाँ इच्छाएँ मौन होकर तप में बदल जाती हैं,
जहाँ व्रती की आँखों में जल नहीं—दीप जलते हैं,
और डूबता सूर्य साक्षी बनता है
मनुष्य और प्रकृति के अद्भुत संवाद का।
ऋग्वेद की ऋचाएँ हों या महाभारत का आख्यान,
हर युग ने इस आराधना को गाया है—
कार्तिक के शुक्ल षष्ठी की सुबह
जब घाटों पर उमड़ती है रोशनी,
तो वह केवल भोर नहीं होती,
वह एक संस्कृति का पुनर्जन्म होता है।
यह नए अन्न की खुशबू का उत्सव है,
जहाँ ठेकुए की मिठास
श्रम, प्रेम और आस्था का स्वाद लिए होती है।
चार दिनों का यह संयम
सिर्फ उपवास नहीं—एक अनुशासन है,
देह को साधने का,
मन को निर्मल करने का।
पुरुषप्रधान समाज में भी
यह पर्व स्त्रियों की दृढ़ता का प्रतीक है—
“रुनकी-झुनकी” जैसी बेटियों की आकांक्षा में
एक नए युग की प्रार्थना छिपी है।
और आज, जब संसार प्रदूषण में डूबा है,
छठ एक हरित दीपक बनकर जलता है—
सर्वाधिक पर्यावरण-संगत अनुष्ठान,
जहाँ कोई कृत्रिमता नहीं,
सिर्फ मिट्टी, जल, अन्न और सूर्य हैं—
जीवन के चार सत्य।
यह पूजा जाति से परे, वर्ग से परे—
समानता का उत्सव है,
जहाँ हर व्रती एक ही जल में खड़ा
एक ही सूर्य से आशीष माँगता है।
अस्त होते सूर्य के सम्मुख
जब हाथ जोड़ उठते हैं,
तो लगता है—
मानव ने स्वयं से क्षमा माँगी है,
और प्रकृति ने उसे एक और अवसर दिया है।
छठ—
केवल पर्व नहीं,
यह पृथ्वी और आकाश के बीच
मनुष्य की विनम्र प्रार्थना है,
जीवन को पुनः पवित्र करने का प्रण है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित ✍️ "कमल की कलम से"✍️
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