माँ दुर्गा की भावुक विदाई

डॉ. अनीता देवी शिक्षिका
बिहार के एक छोटे से गाँव पिठवा,"जमुनिया बजार" में हर साल की तरह इस बार भी शारदीय नवरात्र का उत्सव बड़े ही धूमधाम से मनाया गया। गाँव के हर गली, हर चौक-चौराहे पर रंग-बिरंगी झालरों और विद्युत लाइटों से सजावट की गई थी। सबसे बड़ा आकर्षण था—गाँव के मध्य में स्थापित माँ दुर्गा की भव्य प्रतिमा। इस बार गाँव के युवाओं ने मिलकर विशेष रूप से माँ की प्रतिमा का निर्माण करवाया था, जिसमें माँ के दसों भुजाएँ अद्भुत आभा बिखेर रही थीं।
माँ का रूप देखते ही लगता था मानो स्वयं देवी धरती पर उतर आई हों। एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे में तलवार, तीसरे में कमल, चौथे में शंख, पाँचवे में चक्र, और शेष भुजाओं में विविध अस्त्र-शस्त्र सुशोभित थे। माँ के चरणों में महिषासुर पराजित होकर पड़ा था और माँ की आँखों से करुणा तथा वीरता दोनों झलकती थीं।
नवरात्र की नौ रातों तक गाँव के लोग प्रतिदिन भजन-कीर्तन, आरती और महाप्रसाद का आयोजन करते। बच्चे झूमते-गाते, महिलाएँ चुनरी और नारियल चढ़ातीं, और बुजुर्ग श्रद्धा भरी आँखों से माँ का दर्शन करते। पूरा गाँव मानो एक परिवार बन गया था।
नौ दिन का संगम
नौ दिन ऐसे बीते जैसे मानो क्षण भर का सपना।
हर कोई अपने दुःख-दर्द भूलकर माँ की आराधना में लीन हो गया। किसान भूल गए खेत की चिन्ता, मजदूर भूल गए मेहनत की थकान, बच्चे भूल गए खेल की मस्ती—सभी के जीवन में केवल "जय माता दी" की गूंज थी।
हर रात ढोल-नगाड़े बजते, धुन पर युवा झूमते। "जय भवानी, जय दुर्गा" के नारे गगनचुंबी हो जाते। गाँव की बेटियाँ माँ को सखी मानकर चुनरी ओढ़ातीं और रो-रोकर अपनी मन की बात कहतीं। कोई विवाह की प्रार्थना करता, कोई संतान की, तो कोई सिर्फ माँ का आशीर्वाद माँगता।
विदाई की सुबह
नवमी की रात बीतते ही सबके हृदय में एक हल्की उदासी उतर आई थी। अब माँ को विदा करना था। जैसे-जैसे दशमी की सुबह हुई, गाँव की गलियों में धुन बज उठी—“बाजे ढोल नगाड़ा, जय माता दी।”
मगर इस गूँज में भी एक दर्द था।
महिलाओं ने सुबह-सुबह माँ को सिंदूर चढ़ाया, जैसे बेटी को विदा करते समय माँ उसके माथे पर आँचल रखती है। कई माताएँ तो सचमुच अश्रुपूरित हो उठीं—“माँ! तू तो हमारी रक्षा करती है, अब हमें छोड़कर कहाँ जाएगी?”
बच्चे माँ की प्रतिमा से लिपट गए, मानो कह रहे हों—“माँ! हमें मत छोड़ो, यहीं रहो हमारे साथ।”
विसर्जन यात्रा
दोपहर होते-होते माँ की प्रतिमा को विसर्जन के लिए सजाया गया। गाँव भर के लोग एक साथ जमा हुए। ढोल-नगाड़े, शंख और मंत्रोच्चार के साथ प्रतिमा को ट्रॉली पर रखा गया।
यात्रा शुरू हुई तो ऐसा लग रहा था मानो पूरा गाँव चल पड़ा हो। महिलाएँ मंगलगीत गा रही थीं—
“बिदा होइहे माँ, फेरु अइबहु अगले बरिस,
हमरा अंगना उजियार करी माता रानी।”
बच्चे ढोल पर नाचते, युवा कंधे से कंधा मिलाकर जयकारे लगाते—
“बोलो दुर्गा मैया की—जय!”
“तेरे बिना सूना न रहेगा गाँव!”
हर गली, हर मोड़ पर लोग आरती करते और माँ को प्रणाम करते। जैसे-जैसे यात्रा नदी की ओर बढ़ी, हृदय और भारी होता गया।
भावुक क्षण
नदी किनारे पहुँचते ही सबकी आँखों में आँसू उमड़ आए।
वह दृश्य सचमुच भावुक था—माँ की दसों भुजाएँ अब विदाई की मुद्रा में मानो कह रही थीं—
“मत रो मेरे लाल, मैं यहीं हूँ, बस रूप बदलकर। जब-जब संकट आएगा, मैं तुम्हारे साथ खड़ी रहूँगी।”
महिलाएँ रो-रोकर माँ को पुकारने लगीं—
“माँ! अगले बरस जल्दी आना।”
“माँ! हमारे गाँव को सुख-शांति देना।”
बच्चे प्रतिमा की ओर देखकर हाथ जोड़ बोले—
“माँ! हमारी पढ़ाई पूरी करना, हमें अच्छा इंसान बनाना।”
युवाओं ने माँ के जयकारे लगाए, पर आवाज गले से भारी होकर निकल रही थी। ढोल-नगाड़े की थाप अब दर्द में बदल चुकी थी।
विसर्जन
आखिर वह क्षण आया। प्रतिमा को धीरे-धीरे नदी में उतारा गया।
लहरें माँ के चरणों को छू रही थीं, मानो नदी भी माँ को रोकना चाहती हो।
धीरे-धीरे जल ने माँ को अपनेभीतर समा लिया।
लोगों ने दोनों हाथ उठाकर प्रार्थना की—
“माँ! अगले बरस जरूर आना।”
“हमारे गाँव-घर में फिर उजाला करना।”
उस क्षण गाँव में सन्नाटा छा गया। सबकी आँखें नम थीं। माँ चली गई थीं, पर उनके आशीर्वाद की अनुभूति हर दिल में बसी रह गई।
आशा की लौ
गाँव लौटते समय लोग भले ही चुप थे, पर भीतर एक शक्ति जागी थी। सबको विश्वास था—
“माँ तो हमारे भीतर रहती हैं। हर माँ अपने बच्चों की रक्षा करती है। हर स्त्री में माँ दुर्गा का रूप है। जब तक हम सत्य, साहस और भक्ति के मार्ग पर चलेंगे, माँ हमारे साथ रहेंगी।”
युवाओं ने प्रण लिया कि वे गाँव में शिक्षा का दीप जलाएँगे। किसान ने निश्चय किया कि परिश्रम से धरती को सोना उगलवाएँगे। महिलाएँ संकल्पित हुईं कि वे बेटियों को पढ़ाएँगी और उन्हें आत्मनिर्भर बनाएँगी।
माँ भले ही नदी की लहरों में समा गई थीं, लेकिन उनकी दसों भुजाओं की स्मृति गाँव के हर घर-आँगन में अमर हो गई/
माँ दुर्गा की विदाई केवल प्रतिमा का विसर्जन नहीं, बल्कि भावनाओं का संगम है। यह सिखाती है कि माँ भले ही भौतिक रूप में कुछ दिनों के लिए आती हैं, लेकिन उनकी शक्ति, उनका आशीर्वाद और उनकी प्रेरणा सदैव हमारे साथ रहती है।
इसलिए विदाई का यह क्षण दुःख का नहीं, बल्कि विश्वास का होता है—
“माँ गई नहीं हैं, बस हमारे दिलों में बस गई हैं।”
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