मोहब्बत बाग से रूठ गई
मोहब्बत के बाग मेंबहुत फूल खिल उठे।
सभी अपनी डाले पर
बहुत ये मुस्करा रहे।
और अपनी खुशबू से
बाग को महका रहे।
और अपने मेहबूब को
देखो कैसे लुभा रहे।।
नजर जहाँ तक जाती है
वहाँ तक फूल खिल रहे।
और हवाओं झोंको से
डाली और फूल हिल रहे।
देखकर ऐसा लग रहा
जैसे सभी झूम रहे।
और अपने मेहबूब की
वाहों में सिमट रहे।।
दृश्य ये देखकर हमें
याद अपनी आ रही।
और अपनी दिलरुबा भी
हमें नजर आ रही।
जो फूलों की तरह ही
खिलती और महकती थी।
हमारी बाहों में वो
इसी तरह से झूमती थी।।
आज वर्षो बाद आया हूँ
मोहब्बत के बाग में।
बहुत कुछ दिख रहा
बाग का बदला-बदला सा।
न वो फूल देख रहे
न वो महक आ रही।
लगता है अब बाग से
मोहब्बत रूठ गई है।।
जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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