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“भगवान चित्रगुप्त” - सभी जीवों के कर्मों का सूक्ष्म लेखा-जोखा रखते हैं

“भगवान चित्रगुप्त” - सभी जीवों के कर्मों का सूक्ष्म लेखा-जोखा रखते हैं

दिव्य रश्मि के उपसम्पादक  जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |

सनातन धर्म की गहनता में एक अद्भुत दिव्य तत्व है कर्म। कर्म ही जीवन का आधार है, और कर्म ही आत्मा की दिशा तय करता है। जो जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल उसे मिलता है, यही सृष्टि का शाश्वत नियम है। इस महान न्यायिक व्यवस्था को संचालित करने वाले देव हैं “भगवान चित्रगुप्त”, जिन्हें सृष्टि का मूल्यांकनकर्ता कहा गया है।

स्वर्गलोक में धर्मराज यम के सहयोगी के रूप में भगवान चित्रगुप्त सभी जीवों के कर्मों का सूक्ष्म लेखा-जोखा रखते हैं। उनका उल्लेख न केवल पुराणों में, बल्कि लोकजीवन की परंपराओं में भी गहराई से निहित है। कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन पूरे भारतवर्ष में भगवान चित्रगुप्त का पूजन होता है यह दिन चित्रगुप्त पूजा या कायस्थ द्वितीया के रूप में प्रसिद्ध है।

जब ब्रह्मांड के निर्माण का संकल्प भगवान विष्णु ने किया, तो उनकी नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ और उस कमल से प्रकट हुए सृष्टिकर्ता ब्रह्मा। ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना आरंभ की, जिसके तहत देव, असुर, मनुष्य, पशु-पक्षी, और समस्त प्राणी जगत का निर्माण हुआ। इसी क्रम में धर्मराज यम का जन्म हुआ, जिन्हें मृत्यु और न्याय का दायित्व सौंपा गया।

यमराज ने जब ब्रह्मा से कहा कि “हे सृष्टिकर्ता, मैं जीवों को न्याय देना चाहता हूं, परंतु मुझे ऐसा सहयोगी चाहिए जो उनके कर्मों का सटीक लेखा रख सके।”

तब ब्रह्मा जी ध्यानमग्न हो गए और हजार वर्षों की तपस्या के पश्चात उनकी काया से एक तेजोमय पुरुष प्रकट हुए, यही थे भगवान चित्रगुप्त।

ब्रह्मा जी ने उन्हें आज्ञा दी कि “हे चित्रगुप्त, तुम सृष्टि के प्रत्येक जीव के कर्मों का लेखा रखो। कर्मों के अनुसार, फल दो और धर्मराज की सहायता करो। तुम्हारा कार्य न्याय और धर्म की स्थापना होगा।”

इस प्रकार भगवान चित्रगुप्त को सृष्टि के कर्मों के मूल्यांकनकर्ता और यमलोक के सचिव का पद प्राप्त हुआ।

चित्रगुप्त का अर्थ है, “चित्र” यानि स्पष्ट, और “गुप्त” यानि गुप्त या रहस्यमय। अर्थात, वह जो सभी जीवों के कर्मों को स्पष्ट रूप से जानते हैं, परंतु गुप्त रूप से उनका लेखा रखते हैं।

उनका स्वरूप अत्यंत तेजस्वी बताया गया है, वे कमलासन पर विराजमान हैं, हाथों में लेखन पात्र, दवात, कलम और कर्मों की पुस्तक धारण किए हुए हैं। कंधे पर करवाल (तलवार) होती है, जो न्याय के प्रतीक के रूप में दर्शाई जाती है। उनकी लेखनी ही जीवों का भाग्य लिखती है और उन्हीं की पुस्तक में जीवन का हिसाब अंकित होता है।


भगवान चित्रगुप्त की पत्नी दो मानी जाती हैं, देवी शोभावती और देवी नंदिनी। देवी शोभावती से 8 पुत्र और देवी नंदिनी से 4 पुत्र यानि कुल 12 पुत्र उत्पन्न हुए, जिनसे बारह कायस्थ गोत्रों की उत्पत्ति माना जाता है। इन्हीं बारह वंशों को उत्तर भारत में “कायस्थ कुल” के रूप में पूजा जाता है।


यमराज को धर्मराज कहा गया है। वे मृत्यु के अधिपति हैं, जो हर जीवात्मा के कर्मों का न्याय करते हैं। लेकिन न्याय करने से पहले, आवश्यक होता है कर्मों का सटीक लेखा-जोखा और यही दायित्व भगवान चित्रगुप्त निभाते हैं।


गरुड़ पुराण में कहा गया है कि जब कोई मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है, तो यमदूत उसकी आत्मा को बांधकर यमलोक ले जाते हैं। वहां धर्मराज के दरबार में भगवान चित्रगुप्त अपने कर्म-पत्र खोलते हैं और बताते हैं कि उस आत्मा ने जीवन में क्या किया। जो पुण्यवान है, उसे स्वर्गलोक में स्थान मिलता है और जो पापी है, उसे नरक के भयंकर कष्ट भोगने पड़ते हैं।


भगवान चित्रगुप्त इस व्यवस्था के “कर्म सचिव” हैं। उनकी लेखनी अचूक है। कहा जाता है कि देवता भी उनके निर्णयों से परे नहीं जा सकते, क्योंकि वह केवल सत्य और धर्म के पक्षधर हैं।


कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया, अर्थात दीवाली के दूसरे दिन, भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है। इस दिन कायस्थ समाज विशेष रूप से अपने कुलदेवता भगवान चित्रगुप्त जी की आराधना करता है। कहा जाता है कि इस दिन ही भगवान चित्रगुप्त जी का अवतरण हुआ था। पूजन विधि में, चित्रगुप्त जी की प्रतिमा या चित्र स्थापित किया जाता है। फिर दवात, कलम, कागज, लेखनी आदि का पूजन किया जाता है। भक्त अपने पुराने बही-खाते बदलते हैं, नई कलम उठाते हैं, और भगवान से निवेदन करते हैं “हे चित्रगुप्त महाराज! हमारे पाप क्षमा करें, हमें सद्कर्म की राह दिखाएं।” कहावत भी है कि “जो भगवान चित्रगुप्त का पूजन करता है, उसे नरक के भय से मुक्ति मिलती है।”


पौराणिक कथा के अनुसार, सौराष्ट्र का राजा सौदास अधर्मी और पापी था। उसने जीवनभर कोई पुण्य कर्म नहीं किया। एक बार वह शिकार के लिए जंगल में गया और रास्ता भटक गया। वहां उसे एक ब्राह्मण मिले, जो पूजा में लीन थे। राजा ने पूछा कि “आप किसकी पूजा कर रहे हैं?” ब्राह्मण बोले कि “आज कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया है। मैं यमराज और चित्रगुप्त महाराज की पूजा कर रहा हूं। इनकी पूजा से नरक से मुक्ति मिलती है।” राजा ने जिज्ञासा से पूजा का विधान पूछा और वहीं पूजा की। कुछ समय बाद जब उसकी मृत्यु हुई, यमदूत उसकी आत्मा को जंजीरों में बांधकर यमराज के दरबार में ले गए। भगवान चित्रगुप्त ने अपनी पुस्तक खोली और कहा कि “यह राजा पापी है, परंतु इसने कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया को हमारा पूजन किया था। अतः इसके पाप कट गए हैं, इसे नरक नहीं भेजा जा सकता है।” इस प्रकार राजा सौदास को नरक से मुक्ति मिल गई। यह कथा इस पर्व के मोक्षदायक महत्त्व को दर्शाता है।


मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में स्थित अंकपात क्षेत्र भगवान चित्रगुप्त का प्रादुर्भाव स्थान माना जाता है।
पौराणिक ग्रंथों में इसे अवन्तिका नगरी कहा गया है। कहते हैं, जब ब्रह्मा जी ने भगवान चित्रगुप्त की सृष्टि की, तो उन्होंने यहीं तपस्या की थी और देवगुरु बृहस्पति तथा शुक्राचार्य से सभी विद्याएँ प्राप्त की थीं। इसी स्थान से उन्होंने धर्मराज के सहायक के रूप में कार्यभार ग्रहण किया था।


सन 1985 में क्षिप्रा नदी के तट पर ‘चित्रगुप्त शिला मंदिर’ का निर्माण किया गया, जहां अब हर वर्ष हजारों भक्त चित्रगुप्त पूजा करने आते हैं। शिला पर उकेरे गए चित्र में धर्मराज और भगवान चित्रगुप्त दोनों के रूप अंकित हैं। उज्जैन का यह मंदिर न केवल धार्मिक, बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से भी अद्वितीय है, क्योंकि यही वह भूमि है जहां से भगवान चित्रगुप्त परंपरा का विस्तार हुआ।


अयोध्या नगरी में स्थित श्री धर्म-हरि चित्रगुप्त मंदिर सरयू नदी के दक्षिण तट पर स्थित है। किवदंती है कि स्वयं भगवान विष्णु ने इस मंदिर की स्थापना की थी। यमराज और भगवान चित्रगुप्त को साथ पूजने की परंपरा इसी मंदिर से प्रारंभ हुई। श्रीराम और सीता ने जनकपुर से लौटते समय सर्वप्रथम इसी मंदिर में दर्शन किए थे। अयोध्या महात्म्य ग्रंथ में भी इस मंदिर का उल्लेख ‘धर्म-हरि मंदिर’ के रूप में मिलता है। विक्रमी संवत के प्रवर्तक राजा विक्रमादित्य ने जब सरयू प्रलय के बाद अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया, तो सबसे पहले इसी मंदिर का पुनःस्थापन कराया। सन 1882 में यहाँ चित्रगुप्त धाम की स्थापना की गई, जो आज भी कायस्थ समाज का एक प्रमुख तीर्थस्थल है।


दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में कांचीपुरम नगर के मध्य स्थित है श्री चित्रगुप्त स्वामी मंदिर। यह दक्षिण भारत का एकमात्र प्रमुख मंदिर है जो भगवान चित्रगुप्त को समर्पित है। तमिल ग्रंथ “करणीगर पुराणम” तथा “विष्णु धर्मोत्तर पुराण” में चित्रगुप्त स्वामी के वंशजों का उल्लेख मिलता है जिन्हें दक्षिण भारत में “करणीगर कायस्थ” कहा जाता है। यह मंदिर अत्यंत भव्य है, यहां चित्रगुप्त स्वामी की मूर्ति संगमरमर की बनी है, जो लेखनी, दवात और धर्मपुस्तक धारण किए हुए हैं। मंदिर परिसर में प्रतिवर्ष कार्तिक द्वितीया पर विशाल महोत्सव आयोजित होता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु भाग लेते हैं।


चित्रगुप्त पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह कर्म के सिद्धांत को स्मरण कराने वाला उत्सव है। यह सिखाता है कि जीवन में हर कार्य का लेखा है और मनुष्य को अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी बनना चाहिए। कायस्थ समाज में यह पर्व विशेष रूप से लेखनी पूजन के रूप में मनाया जाता है। बहीखाते, लेखन सामग्री, कलम-दवात, यहाँ तक कि आधुनिक युग में कंप्यूटर और लैपटॉप का भी पूजन किया जाता है। यह परंपरा “ज्ञान और कर्म” दोनों की पवित्रता को दर्शाता है।


गरुड़ पुराण, पद्म पुराण, मत्स्य पुराण और विष्णु धर्मोत्तर पुराण में भगवान चित्रगुप्त का उल्लेख विस्तार से मिलता है।


गरुड़ पुराण कहता है कि “चित्रगुप्त सर्वज्ञो देवो लोकानां कर्मसाक्षिणः।” अर्थात चित्रगुप्त देव सर्वज्ञ हैं, वे सभी लोकों के कर्मों के साक्षी हैं।


पुराणों के अनुसार, जब जीवात्मा मृत्यु के बाद यमलोक पहुँचती है, तो भगवान चित्रगुप्त की पुस्तक उसके संपूर्ण जीवन का लेखा प्रस्तुत करती है। वहां कोई छल, कोई छुपाव संभव नहीं है।


आज का युग सूचना और तकनीक का है। मनुष्य के कर्म अब केवल धार्मिक नहीं है, बल्कि सामाजिक और डिजिटल रूप में भी दर्ज हो रहे हैं। इस संदर्भ में भगवान चित्रगुप्त का प्रतीक और भी प्रासंगिक हो गया है। वह यह सिखाते हैं कि हर विचार, हर कार्य, हर निर्णय का परिणाम होता है। सत्य, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और धर्म का पालन ही जीवन को सार्थक बनाता है।


चित्रगुप्त पूजा आत्ममंथन का अवसर देता है कि हम अपने कर्मों की समीक्षा करें, पापों से क्षमा मांगें और सद्कर्मों की दिशा में आगे बढ़ें।


भगवान चित्रगुप्त केवल एक देवता नहीं हैं, वे न्याय, धर्म और कर्मफल के शाश्वत सिद्धांत का प्रतीक हैं। वे स्मरण कराते हैं कि इस सृष्टि में कुछ भी छिपा नहीं रहता है। हर क्रिया का परिणाम निश्चित है। उनका संदेश स्पष्ट है कि “कर्म करो, परंतु धर्म के अनुरूप करो।”


भगवान चित्रगुप्त जी के उपदेश और पूजा का सार यही है कि मनुष्य जीवन में नैतिकता, कर्तव्यबोध और सदाचार का पालन करे, क्योंकि अंततः वही लेखनी निर्णय करेगी कौन स्वर्ग का अधिकारी है।

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